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________________ २७२ अमरदीप दूसरी साधनाओं को गौण कर देते हैं, परन्तु यह साधना का दोष है, इसी वात को अर्हतर्षि कहते हैं मासे मासे य जो बालो, कुसग्गेण आहारए । ण से सुयक्खायधम्मस्स, अग्घति सतिय कलं ॥१४॥ - 'जो अज्ञानी (बाल) महीने महीने भर का तप करके, उसमें कुश के अग्रभाग जितना भोजन करता है, किन्तु वह सम्यग्दर्शनपूर्वक श्र ताख्यात धर्म की सौवीं कला को भी नहीं प्राप्त कर सकता।' यह कहानी उन साधकों की है, जो विवेकदृष्टि के अभाव में कठोर तप करते हैं, शरीर सूखकर कांटा हो जाता है, लोगों से वाहवाही भी मिल जाती है । वे सोचते हैं, हमारी साधना बहुत लम्बी-चौड़ी है, हमने कठोर तप किया है, इतना घोर कष्ट सहा है, इतना त्याग किया है, किन्तु जब विवेक की तराज पर रखकर उसे तौला जाता है तो आत्म-धर्म के सही पथ पर वे अभी एक कदम भो आगे नहीं बढ़े हैं। दुनिया की तथा भोली जनता की आँखों में वे भले ही ऊँचे उठे हुए प्रतीत होते हों, पर सम्यक् धर्म साधना से कोसों दूर हैं। उनकी अज्ञानपूर्वक की हुई कष्ट साधना को यहाँ सद्धर्म की सौवीं कला से भी अल्प माना गया है। शुद्ध भिक्षा द्वारा जीवन निर्वाह करे प्रश्न होता है साधक को भी जीवनयापन के लिए आहार-वस्त्र-पात्र आदि कुछ साधनों की आवश्यकता रहती है, उनकी पूर्ति कैसे करे ? कैसे शुद्ध जीवन रखे ? अतः अर्हतर्षि अन्तिम तीन गाथाओं द्वारा इस विषय पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं - मा ममं जाणउ कोयी, माहं जाणामि कंचि वि । अण्णातेणत्थ अण्णातं चरेज्जा समुदाणियं ॥१५॥ पंचवणीमगसुद्ध जो भिक्खं एसणाए एसेज्जा । तस्स सुलद्धालामा हणणादी विप्पमुक्क दोसस्स ॥१६॥ जहा कवोता य कविजला य गावो चरंतो इह पातडाओ। एवं मुणी गोयरियं चरेज्जा, णो वि लवे णो विय संजलेज्जा॥१७।। अर्थात्-कोई मुझे नहीं जाने और मैं भी किसी को नहीं जानू। इस प्रकार अज्ञात के साथ अज्ञात होकर साधक समाज में सामुदानिक भिक्षाचर्या करे ॥१५॥ जो साधक श्वान आदि पाँच वनीपक से शुद्ध भिक्षा एषणाविधि (गवेषणा, ग्रहणेषणा; परिभोगैषणाविधि) के साथ ग्रहण करता है,
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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