SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अमरदीप सचमुच, आर्य शान्ति और धैर्य को क्षण भर के लिए भी नहीं छोड़ते । भयानक से भयानक परिस्थिति में भी वे अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते । वे सांसारिक वैषयिक सुखों को आत्मिक सुखों के आगे तुच्छ मानते हैं। उन्हें दृढ़ विश्वास होता है कि संसार का समस्त वैभव तथा विषयोपभोग आत्मा को जरा भी सुखी नहीं कर सकते। योगिराज भर्तृहरि ने नीतिशतक में भो आर्यजनों के सुमार्ग का वर्णन करते हुए कहा है प्राणघातान्निवृत्तिः परधनहरणेसंयमः सत्यवाक्यम्, काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम् । तृष्णास्रोतो-विभगो, गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा, सामान्यं सर्वशास्त्र ष्वनुपहतनिधिः श्रेयसामेष पन्थाः ।।१४।। -जो महानुभाव प्राणिहत्या से निवृत्त होते हैं, पर-धन को हरण करने में संयम रखते हैं, सत्य वचन बोलते हैं, समय आने पर शक्ति अनुसार दान देते हैं, परस्त्रियों की विकथा में मौन रहते हैं, जिन्होंने तृष्णा के स्रोत को समाप्त कर दिया है, जो श्रेयस्कर शास्त्रों के विधान को तोड़ते नहीं, यही श्रेष्ठ पुरुषों (आर्यों) का उज्ज्वल पथ है। ऐसे आर्य पुरुषों के हृदय में प्राणिमात्र के प्रति मैत्री, करुणा और. आत्मीयता की भावना होती है। अपनी विशाल दृष्टि और उदारवृत्ति के कारण वे सबको अपना आत्मीय समझते हैं । वे विश्वकुटुम्बी बनकर मन से किसी भी प्राणी का अहित चिन्तन नहीं करते, वचन से एवं कार्य से भी किसो का अनिष्ट नहीं करते। वे दूसरों के सुख-दुःख एवं हानि-लाभ को अपना सुख-दुःख एवं हानि लाभ समझते हैं । वे अत्यन्त कष्ट में होते हुए भी धर्म-पथ को नहीं छोड़ते, न ही पाप-पथ को स्वीकार करते हैं । वस्तुतः आर्यजन अपने विचारों और कार्यों से अपनी आत्मा को उन्नत एबं पवित्र बनाते हैं, और इहलोक एवं परलोक में सुख के भागी बनते हैं। ____ इसके विपरीत जो अनार्य पुरुष होते हैं, वे आसुरी शक्ति के धनी होते हैं। उनकी भावनाएँ क्र र और हिंसापूर्ण होती हैं। उनके कृत्य अतिनिन्दनीय होते हैं। ऐसे पुरुष निर्बलों और पीड़ितों का आर्थिक दृष्टि से शोषण एवं उत्पीड़न करते हैं, अन्याय और अत्याचार करते हैं; तथा दूसरे के अधिकारों का अपहरण करने में वे जरा भी नहीं चूकते। वे अनीति और अधर्म से अर्थोपार्जन करते हैं। दूसरों का अनिष्ट करने में वे रंचमात्र भी नहीं डरते और न ही झूठ बोलने, ठगी एवं बेईमानी करने तथा कपट करने में संकोच
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy