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आय और अनाय की कसौटी
'आरात् सर्व हेयधर्मेभ्य इति आर्य : ' 'ऋच्छति - प्राप्नोति सद्गुणानिति आर्य : '
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- जो समस्त त्याज्य धर्मों, अर्थात् अहितकर एवं निन्दनीय कार्यों से दूर रहता है, वह आर्य है ।
- अथवा जो व्यक्ति और समाज के लिए कल्याणकारी सद्गुणों को प्राप्त करता है, वह आर्य है ।
भारतीय संस्कृति के अनुसार दैवी प्रकृति के धनी को आर्य और आसुरी प्रकृति के धनी को अनार्य कहा जा सकता है ।
दैवी प्रकृति से सुशोभित आर्य-पुरुषों की यही विशेषता होती है कि वे अपने हृदय में किसी के प्रति वैर - विरोध, छल छिद्र, द्व ेष वैमनस्य को स्थान नहीं देते । वे स्वभाव से ही सरल स्वभावी, समदर्शी एवं समभावी होते हैं । प्राचीन नीति ग्रन्थों में आर्य के कुछ लक्षण बताये गये हैं, जिनसे भी आपको आर्य शब्द का महत्त्वपूर्ण अर्थ मालूम हो जाएगा -
कर्त्तव्यमाचरन्
काममकर्त्तव्यमनाचरन् । तिष्ठति प्रकृताचारे स वै आर्य इति स्मृतः ॥ १ ॥ कुलं शोल दया दानं धर्मः अद्रोह इति येष्वेतत् न वैरमुद्दीपयति प्रशान्तं, न न दुर्गतोऽस्मीति करोत्य कार्य
न स्वे सुखे वं कुरुते प्रहर्ष, नान्यस्य दुःखे भवति प्रहृष्टः । दत्त्वा न पश्चात् कुरुते यस्तापं स कथ्यते सत्पुरुषार्यशीलः ||४||
सत्यं कृतज्ञता । तानार्यान् संप्रचक्षते ॥२॥ दर्पमारोहति नास्मयेति । तमार्यशीलं परमाहुरार्याः ॥ ३॥
अर्थात् - जो अपने कर्त्तव्य का पूरी तरह से पालन करता है, किन्तु अकर्त्तव्य का आचरण नहीं करता, बल्कि अपने स्वाभाविक श्रेष्ठ आचरण में दृढ़ रहता है, वही आर्य कहलाता है ।
श्रेष्ठ कुल, उत्तम शील, दया, दान, धर्माचरण, सत्य, कृतज्ञता एवं अद्रोह आदि सद्गुण जिनमें हों, वे ही आर्य कहलाते हैं । जो शान्त हुए वैरविरोध को उभारता नहीं न घमण्ड करता और न हो अस्मिता या रोष करता है । स्वयं बड़ी से बड़ी विपत्ति में फँस जाने पर भी अकार्य नहीं करता, उसी आर्यशीलशाली पुरुष को आर्य कहा गया है ।
जो अपने सुख में कभी हर्षित नहीं होता और दूसरे को दुःख में देखकर खुश नहीं होता है, दान देकर पश्चात्ताप नहीं करता, उसी सत्पुरुष को आर्यशील कहा जाता है ।