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________________ २५८ अमरदीप प्रस्तुत अध्ययन के उपदेशक संजय अर्हतर्षि के मन में पूर्व जीवन में मृगवध जैसे अपने हिंसात्मक पाप कृत्यों से विरक्ति हो चुकी है और मधुर आस्वादनों तथा सुन्दर भवनों में भी उन्हें अब कोई रुचि नहीं रही। वर्णन साम्य को देखते हुए दोनों संजय ऋषि एक ही हैं, ऐसा प्रतीत होता है। जो भी हो, संजय ऋषि अपने जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करके प्रत्येक साधक को अपने पूर्वजीवन में या इस जीवन में हए जरा-से पाप की भी शुद्ध हृदय से आलोचना करने और आत्मशुद्धि करने की प्रेरणा दे रहे हैं कि जितना साँप से डरकर दूर भागते हो, उतना ही पाप से डरकर दूर भागो। उत्तराध्ययन सूत्र (२९/६) के अनुसार- कृतपाप के पश्चात्ताप से भी जीव वैराग्यवान् होकर क्षपक श्रेणी प्राप्त कर लेता है। आप भी पापकर्म से दूर रहें, पूर्वकृत पापों की आलोचना करके शुद्ध हों, और नये पाप करने से हिचकिचाएँ।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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