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________________ पापकर्म से विरक्ति २५७ बन्धुओ ! सिद्धवैताल के जीवन में जरा-सा दृष्टिदोष का पाप आया, परन्तु उसने गुरु के समक्ष आलोचना करके उसका प्रायश्चित्त ग्रहण कर आत्मशुद्धि की। इसी प्रकार प्रज्ञाशील साधक को चाहिए कि भूलों की आवृत्ति न होने दे। एक भूल क्षम्य हो सकती है, किन्तु भूलों का समूह भयंकर परिणाम ला सकता है । अत. भूलों का प्रतिक्षण निरीक्षण-परीक्षण और परिमार्जन करता रहे। शुद्ध अन्तःकरण से योग्य गीतार्थ गुरु के निकट निष्कपटभाव से शुभ अध्यवसायपूर्वक आलोचना करके आत्म-शुद्धि करे । कपटसहित आलोचना से आत्मशुद्धि संभव नहीं है। जो आलोचना में कपट करता है, वह उस माया के फलस्वरूप मरकर नरक या तिर्यंचगति में जाता है । जैसे रोगी डॉक्टर के सामने छल करता है तो उसका उचित निदान और चिकित्सा न होने से वह स्वस्थ नहीं हो सकता, इसी प्रकार गुरु के समक्ष कपट मुक्त आलोचना किये बिना आत्मा में भी स्वस्थता एवं पवित्रता नहीं आ सकती। . . पूर्वजीवन के पापकर्म का पश्चात्ताप और संसार से विरक्ति . . अब संजय अर्हतर्षि अपने पूर्वजीवन में हुए पापकर्म की आलोचना करते हुए कहते हैं--- संजएणं अरहता इसिणा बुइतं - . ण वि अस्थि रसेहि भदएहि, संवासेण य भएण य । जत्थ मिए काणणोसिते उवणामेति वहाए संजये ।।५।। संजय अर्हतर्षि कहते हैं---'मुझे अब अधुर रसों और सुन्दर नयनाभिराम निवास-स्थानों से कोई प्रयोजन नहीं रहा, जहाँ कि संजय ने वन-वन में रहे हुए निर्दोष मृग मारे थे। यहाँ संजय अर्हषि मृगवध के लिए वन में जाने वाला संजय (राजा) उत्तराध्ययन सूत्र (अ. १८/गा. १-१८) में वणित कम्पिल नरेश संजय ही है या और कोई सजय है ? यह विचारणीय है । वह संजय मृगया का शौकीन है । वन में एक मृग को बाण से बींध देता है । आहत मृग ध्यानस्थ मुनि गर्दभालि के निकट जाकर गिर गया था। अश्वारूढ़ संजय राजा भयभीत होकर मुनि के पास आया । मुनि कुछ भी नहीं बोलते तब और भी भयभीत होकर राजा संजय ने क्षमायाचना की। मुनि ने संजा राजा को अभयदान दिया और जीवनभरं अभयदाता बनने का संकल्प कराया। सजय राजा को अब हिंसादि पापों से विरक्ति हो गई। वह राज्य छोड़कर मुनि: चरणों में दीक्षित हो गया।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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