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अमरदीप
उनके मन में विषय-भोगों के प्रति घृणा और विरक्ति हो जाती है, वे इन सबसे अलग होकर निर्जन वन की शीतल शान्ति में आश्रय खोजते हैं ।
अतः तुच्छ निःसार मनुष्य में संवेग की बहुलता होती है और उत्तम ( उच्च विचारक) मानव में निर्वेद की प्रधानता होती है ।
तीर्थंकरों की उपदेश वर्षा तो बादलों की तरह सर्वत्र समानभाव से होती हैं, किन्तु उसके परिणाम में अन्तर आता है, उसका कारण अर्ह तर्षि ने ग्यारहवीं गाथा में बताया है । उसका तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञ देवों की वाणी सब सुनते हैं । जो केवल श्रवण का माधुर्य पाने के लिए सुनते हैं, उनके लिए वह संगीत बनकर रह जाती है, किन्तु जो विशेष भूमिका में पहुंच चुके हैं, उनके लिए जिनवाणी मर्म-वेधिनी है ।
यही कारण है कि गजकुमार जैसे भोगप्रधान वातावरण में पलेपुसे व्यक्ति ने तीर्थंकर अरिष्टनेमि की एक ही देशना सुनी तो आत्मा में जागृति की ऐसी लहर आई कि संसार के बन्धन तोड़कर वे चारित्र के महापथ पर चल पड़े। वाणी का प्रभाव व्यक्ति की भूमिका, उपादान और कर्मोदय पर निर्भर है। भूमि शुद्ध होती है तो सामान्य - से बीज और हल्की-सी वर्षा भी काम कर जाती है और भूमि ऊसर है तो न बीज काम करते हैं, और न ही वर्षा कुछ कर सकती है ।
उपादान शुद्ध हो, अन्तर् की जागृति हो, तो वाणी के बीज प्रतिफलित होते हैं । यही कारण है कि कुछ भावनाशील श्रोता एक ही प्रवचन सुनकर संसार से विरक्त हो जाते थे । जबकि आजकल प्रवचनों की झड़ी लग जाने पर भी श्रोता भीगतें जरूर हैं, किन्तु प्रवचन हॉल से बाहर निकलते ही उनके मन से उसका असर निकल जाता है ।
जिस प्रकार पिछली गाथा में बताया है कि तीर्थंकरों के उपदेश का असर किसी पर संवेगरूप होता है, किसी पर निर्वेदरूप में । उसी प्रकार इस गाथा में तीर्थंकरों के उपदेश का असर कर्णप्रियता के रूप में तथा मर्मवेधीरूप में होता है; यह तो श्रोता की पात्रता और उसकी क्षेत्र विशुद्धि पर निर्भर है ।
वीतराग की वाणी सबका हित, सबका विकास और सबके प्रति दया की धारा से ओतप्रोत होती है । जिनेश्वर के शासन में अविकसित एकेन्द्रिय tar तक के हित सुरक्षित हैं, षट्कायरक्षा सूचक मुनिवेष भी उन्होंने निर्धारित किया है । षट्कारक्षक साधकों को आरम्भ-परिग्रह से दूर रहने का सन्देश दिया है । तप सत्य एवं दया भाव के द्वारा आत्मिक शक्ति को जागृत करने