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________________ २४० अमरदीप मनुष्य उसे मिटाने के लिए वैद्य की शरण लेता है । वैद्य कड़वी-मीठी जैसी भी औषधि देता है, वह उसे पी जाता है । इसी प्रकार मोहक्षय के लिए साधक को सद्गुरु के निकट जाना पड़ता है । सद्गुरु, जो भी कठोर - सरल साधना बताएँ, उसे अपनाना होता है। तात्पर्य यह है कि व्याधिनाश या मोहनाश दोनों ही अवस्था में वैद्य या गुरु को सुख या दुःख महसूस नहीं होता है, जो कुछ शरीरजन्य क्षणिक सुख या दुःख महसूस होता है, वह रोगी या मोहनाश के लिए प्रवृत्त साधक को होता है । एक न्यायाधीश अन्य अपराधी को फांसी की सजा देते समय मोह से ग्रसित नहीं होता, किन्तु अपने अपराधी बेटे को सजा देते समय मोह आ जाता है । परन्तु दोनों ही अवस्थाओं में सुख या दुःख न्यायाधीश को महसूस नहीं होता । किन्तु मोह है वहाँ दुःख तो ही एक अस्वस्थ व्यक्ति का लक्ष्य होता है - ( दवा लेकर ) स्वस्थ होना । वस्तुएँ हैं । जो स्वस्थ हो, वह सुखी स्वस्थ व्यक्ति भी चिन्ता, स्वार्थक्षति परन्तु स्वास्थ्य और सुख दोनों भिन्न हो ही, ऐसा एकान्त नहीं है । बहुत आदि के कारण दुःखी रहते हैं । से अथवा रोगी का लक्ष्य सुख या दुःख नहीं है । उसका लक्ष्य हैस्वस्थ होना, उसके लिए कड़वी या मीठी जैसी भी औषधि होती है, वह ता है । मोक्षय की साधना में प्रवृत्त साधक के समक्ष सुख और दुःख आ सकते हैं । कभी मोह रौद्ररूप लेकर आता है । जब मोही व्यक्ति की बात ठुकराई जाती है, तो वह राक्षसीरूप लेकर भी प्रकट होता है। जैसे कि प्रदेशी राजा के सम्मुख सूरिकान्ता रानी के द्वारा मोह का यही रूप आया था । साधना के पथिक के समक्ष मोह मोहिनी का रूप लेकर भी प्रकट होता है, वह भोग की भिक्षा मांगता है । किन्तु साधक को इन दोनों से परे रहना है । उसे सजग रहना है, ताकि मोह का रौद्र और सुन्दर दोनों रूपों का जादू उस पर न चल सके । साधक का लक्ष्य मोह क्षय करके आत्मा का निजरूप प्राप्त करना है, भौतिक सुख-दुःख उसके लक्ष्य नहीं हो सकते। मोह से विमुक्ति भी अपने-आप में सुखरूप या दुःखरूप नहीं है। सुख में राग है, दुःख में द्व ेष; मोक्ष इन दोनों से परे है। जैसे रोगमुक्त व्यक्ति को हम सुखी या दुःखी न कहकर स्वस्थ कहते हैं; ठीक इसी प्रकार मोहमुक्त आत्मा स्वस्थ है, निजरूप में स्थित है । संवेग और निर्वेद : सुखरूप या दुःखरूप अब प्रश्न यह होता है, कि संवेग और निर्वेद सुखरूप हैं या दुःखरूप ? जैनदर्शन की दृष्टि से अर्हतर्षि ने इसका उत्तर देते हुए कहा
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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