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________________ आत्मनिष्ठ सुख की साधना के मूल मन्त्र २३६ धारा में अवगाहन कर सकता है। निष्कर्ष यह है कि साधक आसक्ति और वाचालता से बचे। छठी गाथा में साधक को जागृति का सन्देश दिया गया है। जिस साधक की आत्मा जाग्रत है, वहां इन्द्रियाँ सोई रहती हैं, परन्तु जिसकी इन्द्रियाँ जाग्रत हैं, उसकी आत्मा सुप्त है । जब वनराज जाग्रत होता है, तब उसकी दहाड़ से शृगाल जान लेकर झाड़ियों में दुबक जाते हैं, मृग चौकड़ी भरना भूल जाते हैं, किन्तु जब तक वनराज सोया रहता है, तब तक शृगाल उछल-कूद मचाते हैं, मग चौकड़ी भरते हैं; ठीक इसी प्रकार जब आत्मा जाग्रत होता है, ज्ञान के प्रकाश को पाता है, तब इन्द्रियों के मग चौकड़ी भरना भूल जाते हैं । किन्तु जब आत्मा भावनिद्रा में सोया रहता है, तब इन्द्रियाँ अपने विषयों की ओर दौड़ती रहती हैं। जाग्रत रहने वाला आत्मा सदा सुखी रहता है। व्याधिक्षय या मोहक्षय सुखरूप नहीं __ कई लोग स्वस्थता और मोहक्षय आदि को सुखरूप मानते हैं, अर्हतर्षि सातिपुत्र इसका तात्त्विक दृष्टि से विश्लेषण करते हुए हैं वाहिक्खयाय दुक्खं वा सुहं वा गाणदेसियं । मोहवखयाय एमेव सुहं वा जइ वा सुहं ॥७॥ ण दुक्ख ण सुखं वा वि जहाहेतु तिगिच्छिति । तिगिच्छएसु जुत्तस्स दुक्खं वा जइ वा सुहं ।।८।। मोहक्खए उ जुत्तस्स दुक्खं वा जइ वा सुहं ।। मोहक्खए जहाहेउ न दुक्खं न वि वा सुहं ॥६॥ अर्थात्-व्याधि के क्षय के लिए दुःखरूप या सुखरूप जो औषधियाँ होती हैं, (वैद्य के) ज्ञान से वे उपदिष्ट हैं । इसी प्रकार मोह के क्षय के लिए सुखरूप (या दुःखरूप) जो साधना है, वह भी गुरु से उपदिष्ट है ॥७॥ जिस हेतु को लेकर चिकित्सा की जाती है, वहां सुख भी नहीं है और दुःख भी नहीं है । चिकित्सा में युक्त व्यक्ति (रोगी) को सुख और दुःख हो सकता है ।।८। । इसी प्रकार मोह-क्षय में युक्त (प्रवृत्त) व्यक्ति को सुख या दुःख हो सकता है, किन्तु मोहक्षय का हेतु सुख और दुःख नहीं है ॥६॥ डून तीनों गाथाओं का परमार्थ यह है कि शरीर में व्याधि है तो
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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