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________________ २३८ अमरदीप दुःख हो. या सुख हो, शत्रु हो या मित्र वर्ग हो, संयोग हो या वियोग, भवन हो या वन, मिष्ठान हो या सूखी रोटी, हे नाथ ! मेरा यह मन इन समस्त वस्तुओं पर से ममत्वबुद्धि का त्याग करके सम हो जाए । अर्थात् -मेरी सब पर समत्वबुद्धि हो ! अर्थात्- मुझे मनोज्ञ वस्तु लुभा न सके और अमनोज्ञ वस्तु के प्रति तिरस्कार न हो। पंचेन्द्रिय विषयों में आसक्ति और वचन दोष का त्याग करे णाणावण्णेसु सद्देसु सोयपत्तेसु बुद्धिमं । . . गहि वायपदोसं वा, सम्मं वज्जेज पंडिए ॥५॥ एवं रूवेसु गंधेसु रसेसु फासेसु अप्पप्पणाफिलावेण । पंच जागरओ सुत्ता, अप्पदुक्खस्स कारणा।। तस्सेव तु विणासाय पण्ण वटिज संतयं ।।६।। . अर्था-- श्रोत्र में प्राप्त नाना वर्णों के शब्दों में आसक्ति (वृद्धि) और वाणी के दोष का बुद्धिमान् पण्डित साधक सदैव सम्यक् प्रकार से त्याग करे ॥५॥ इसी प्रकार रूप, गन्ध, रस और स्पों में भी साधक को आसक्त नहीं होना चाहिए। ___जाग्रत-अप्रमत्त मुनि की पांचों इन्द्रियां अल्पदुःख का हेतु बनती हैं, किन्तु प्रज्ञाशील साधक को उनके (विषयों के) विनाश के लिए प्रयत्न करना चाहिए ॥६॥ प्रस्तुत दो गाथाओं में साधक को सूख के सन्दर्भ में इन्द्रिय-विषयों से अनासक्ति का सन्देश दिया गया है। कान से शब्द टकराते हैं, उन्हें रोका नहीं जा सकता किन्तु मनोज्ञ शब्दों के प्रति आसक्ति भाव को साधक रोक सकता है । इसी प्रकार मनोज्ञ रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के शुभ पर्याय साधक को प्राप्त हों, उस समय उसे सावधान रहकर मन के भीतर उन्हें प्रविष्ट नहीं होने देना चाहिए । उनकी प्राप्ति के लिए मन तड़फे नहीं, और उनके वियोग में पलक भीग नहीं तो समझना चाहिए, आसक्ति का पाठ साधक ने सीख लिया है। अनासक्ति जल में रहकर भी जल से निर्लिप्त रहने की कला है । नदी में डुबकी लगाकर भी कोई सूखा निकल आए, तभी चमत्कार है । किनारे पर बैठकर कोई दावा करे कि वह सूखा है तो यह हास्यास्पद होगा। अनासक्ति के अभ्यास से साधक सदैव आत्मनिष्ठ सुख का अनुभव करेगा। __ वाणी के दोष हैं-अति बोलना, कठोर बोलना और असमय में बोलना आदि। उनसे बचने से भी साधक दुःखी नहीं होता। वह शान्ति की
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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