________________
आत्मनिष्ठ सुख की साधना के मूल मन्त्र
४. जिसकी आदि में भी दुःख है और अन्त में भी दुःख है । इन चारों भंगों में से प्रथम और तृतीय भंग ग्राह्य है और शेष दो अग्राह्य है ।
प्रिय विषयों में सुख और अप्रिय में दुःख की कल्पना करने वाले साधकों की मनोवृत्ति का चित्रण करते हुए अर्ह तर्षि सातिपुत्र कहते हैंमणुष्णं भोयणं भोच्चा, मणुष्णं सयणासणं । मणुष्णंसि अगारंसि झाती भिक्खू समाहिए ॥ २ ॥ अमणुण भोयणं भोच्चा, अमणुष्णं सयणासणं । अमणुण्णंसि गेहंसि दुवखं भिक्खू शियायति ॥ ३॥ एवं अणे गवण्णागं तं परिचज्ज पंडिते । णण्णत्य लुब्भई पण्णे, एवं
बुद्धाण सासणं ॥ ४ ॥
२३७
अर्थात् - 'मनोज्ञ भोजन करके और भवन में भिक्षु, समाधिपूर्वक ध्यान करता है ||२||
मनोज्ञ शयनासन पाकर मनोज्ञ
अमनोज्ञ भोजन करके और अमनोज्ञ शयनासन पाकर अमनोज्ञ घर भिक्षु दुःखपूर्वक ध्यान करता है ||३||
इस प्रकार का विचार अनेक वर्ण वालों (पंचरंगे वस्त्र पहनने वाले साधकों) का है, प्रज्ञाशील पण्डित साधक इस विचार का परित्याग करके कहीं पर भी लुब्ध (आसक्त) नहीं होता; यही बुद्धों (प्रबुद्ध आत्माओं) का शासन (शिक्षण) है ॥४॥
जो भिक्षु मनपसन्द पदार्थों को पाकर सुख का और मन के प्रतिकूल स्थान- भोजनादि पाकर दुःख का अनुभव करता है, वह चाहे किसी भी वेष में, किसी भी सम्प्रदाय में हो, विषयसुखासक्त है । मन के प्रवाह में बहने वाले ऐसे साधक इष्टवियोग- अनिष्टवियोग में शोक की अनुभूति करके अपनी समता की साधना को भंग करते हैं । और इन्द्रिय-विषयनिष्ठ सुख के चक्कर में पड़कर वे दुःख ही पाते हैं । अतः समतायोगी साधक आत्मनिष्ठ अक्षय सुख का ही अनुभव करे । वह इस विषयनिष्ठ सुख-दुख की गलत विचारधारा को छोड़ दे। और सदैव सामायिकपाठ के इस श्लोक को हृदय में अंकित कर ले
दु:खे सुखे वैरिणि बन्धुवर्गे, योगे वियोगे भवने वने वा । निराकृताशेष- ममत्वबुद्ध े, समं मनो मेऽस्तु सदापि नाथ ॥ ॥ ३ ॥