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________________ ३८ क्रोध की अग्नि : क्षमा का जल धर्मप्रेमी श्रोताजनो ! कई बार हम देखते हैं कि कोई एक साधक शान्त, एकान्त स्थान में रह रहा है । वातावरण भी शान्त है । कहीं कोई कोलाहल या लड़ाई-झगड़ा नहीं हो रहा है, फिर भी उस साधक के मन में तूफान उठ रहा है, उसका मन शान्त नहीं है । क्या आप जानते हैं कि बाह्य वातावरण शान्तं होते हुए भी उसके मन में अशान्ति कहाँ से आई ? आध्यात्मिक महापुरुष कहते हैं कि उसके अन्तर् में क्रोध की आग है। उसी की गर्मी के कारण उसका मस्तिष्क तप जाता है, आँखें लाल हो जाती हैं । कभी-कभी आवेश में आकर शरीर की चेष्टाएँ भी दूसरे को मारने पीटने को उतारू हो जाती है । आत्मा में शुद्ध तेज तो आवश्यक है, यह साधना से - क्षमत्व भाव से प्राप्त होता है, इस तेज में ताप नहीं होता । किन्तु क्रोध की गर्मी विकृत गर्मी है, और वह शरीर में, मन में संताप पैदा करती है । वास्तव में देखा जाय तो नरक की आग की अपेक्षा क्रोध की आग अधिक भयावह है । उस आग में परिवार, समाज और राष्ट्र भी झुलसकर तबाह हो जाता है । क्रोधी के क्रोध को भड़कायें नहीं, शान्त करें अतः साधक के जीवन में क्रोध पर विजय पाने की प्रेरणा देते हुए अर्हतषि तारायण छत्तीसवें अध्ययन में कह रहे हैं उप्पतता उप्पतता उप्पयंतं पितेण वोच्छामि । कि संतं वोच्छामि ? ण संत वोच्छामि कुक्कुसया, वित्तेण तारायणेण अरहता इसिणा बुझतं । अर्थात् - आध्यात्मिक धन से युक्त अर्ह तर्षि तारायण ने कहा--"उग्ररूप से उत्पन्न होने वाले क्रोध से उबलते हुए व्यक्ति को मैं क्या प्रिय वचन बोलूंगा, क्या शान्त वचन कहूंगा, अथवा कुत्सा से कुत्सित होकर ( क्रोध से जल भुनकर कुत्सित वचन कहूंगा ?"
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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