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कषायों के घेरे में जाग्रत आत्मा
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रहती है । सूत्र को वही जगा सकता है, जो स्वयं जाग्रत हो। जिस साधक की आत्मा जाग्रत नहीं है, उसे सम्यकशास्त्र भी प्रकाश नहीं दे सकते । स्वप्रकाश के अभाव में परप्रकाश का कोई महत्व नहीं है । अंधे के हाथ में रही हुई हजार पावर की बैटरी वाली टॉर्च भी कोई प्रकाश नहीं दे सकती, न ही वह काँटों और कंकरों से बचा सकती है, क्योंकि उसके पास स्वतः प्रकाश नहीं है। ठीक इसी प्रकार प्रकाशहीन दृष्टि-अजागृति लेकर आप आगम को टटोलेंगे तो उससे कोई प्रकाश नहीं मिलेगा, किन्तु यदि प्रकाशमयी दृष्टि-जागृति को लेकर चलेंगे तो आगम ही नहीं, आगमेतर साहित्य भी आपको सम्यक् ज्ञान का प्रकाश देगा। स्वप्रकाशयुक्त साधक के लिए मिथ्याश्रु त भी सम्यक्च त बन जाएगा।
अतः धर्माचरण में सदैव जाग्रत रहो । यही यथार्थ जागृति है। भावजागृति के अभाव में जागता हुआ भी साधक सुप्त है। जो सुप्त है, वह सुखी नहीं है; जाग्रत है, वही सुखी है।
___ जाग्रत आत्मा के निकट दोष और विकार कभी नहीं फटकते, वे उससे उतने ही डरते हैं, जितना कि एक दाहभीरु जलती हुई आग से डरता है। जिसकी आत्मा जाग्रत है, तप, त्याग, और संयम की जिसमें ज्योति जल रही है, उसके निकट वासना, मिथ्याविश्वास और कषायादि विकारों के जुगनू पहुँच नहीं सकते क्योंकि उसके पास सम्यग्ज्ञान की दीपशिखा सतत प्रज्वलित है। विकार और दोष जानते हैं कि ऐसे तेजस्वी साधक के निकट पहुँचते ही हम उसके तप-तेज की आग में भस्मीभूत हो जाएंगे। बन्धुओ !
निष्कर्ष यह है कि साधक को सदैव आत्मजागृति-भावजागृति रखनी चाहिए । जागृति ही उसे मोक्ष के अनन्त सुख तक पहुँचा सकती है ।