SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की अग्नि : क्षमा की जल २२१ किसी के तीखे शब्द की टक्कर लगते ही क्रोध भभक उठता है । क्रोध के क्षणों में मनुष्य सोचता है कि जिसके प्रति क्रोध आ रहा है, उसको अधिक से अधिक पीड़ा पहुंचाई जाय । इसलिए वह मर्मवेधी शब्दों का अधिक अधिक प्रयोग करता है । किन्तु सोचना यह है कि क्या आत्मार्थी साधक के लिए यह जरूरी है कि दूसरे क्रोधी को देखकर वह भी क्रोध में उबल पड़े । दूसरे को निर्धन देखकर किसी को निर्धन बनने का स्वप्न नहीं आता, दूसरे को धूल धूसरित देखकर कोई अपने पर धूल नहीं डाल लेता, तब दूसरे क्रोधी को देखकर उसे क्रोध क्यों आ जाता है ? क्रोध आ जाता है, इसका मतलब है कि क्रोध उसमें भरा हुआ है । यह तो एक बहाना है कि उसे क्रोधित देखकर गुस्सा आ गया | दरअसल, साधक को चाहिए कि वह अपनी शान्ति क्रोधी व्यक्ति में जगा दे। यदि दीपक अपने सामने फैले अनन्त अन्धकार को देखकर स्वयं भी अन्धकाररूप हो जाए तो उस दीपक की कीमत ही क्या है ? दीपक का महत्व है - अन्धकार में भी अपनी ज्योति को कायम रखना । दूसरे को गुस्से में देखकर यदि साधक ने अपनी शान्ति छोड़ दी तो फिर उसकी शान्ति का क्या मूल्य है ? यदि साधक के पास शान्ति की सुधा है तो उसका उपयोग उसे क्रोध के क्षणों में करना चाहिए। मधुर एवं शान्त वचनों के द्वारा उसकी क्रोध की आग को शान्त कर सके, तभी वह साधक सच्चा चिकित्सक हो सकेगा । यदि ज्वरग्रस्त रोगी को देखकर डॉक्टर को ज्वर चढ़ जाय तो हो चुकी उसकी डॉक्टरी ! साधक आत्म-निरीक्षण करे कि आवेश के क्षणों में मधुर एवं शान्त वचनों द्वारा उस आग को बुझाई है या कठोर शब्दों द्वारा आग को बढ़ाई है ? विचारशील साधक को चाहिए कि गर्म वातावरण 1 अपने दिल-दिमाग को शान्त रखे, ताकि वह दूसरे के गर्म दिमाग को ठंडा कर सके । यही क्रोध विजय की साधना का पहला पाठ है । क्रोधी के प्रति क्रोध साधक के लिए कितना हानिकारक है ? इसे अर्हत आगे कहते हैं - पत्तस्स ममय अन्नेसि मुक्को कोवो दुहावहो । तहा खलु उप्पतंतं सहसा कोवं णिगि हितव्वं ॥ १ ॥ अर्थात् - क्रोधपात्र व्यक्ति के प्रति छोड़ा गया क्रोध मेरे और अन्य व्यक्तियों के लिए दुःखावह होता है । अतः उत्पन्न हुए क्रोध पर सहसा ( जल्दी ही ) नियन्त्रण ( निग्रह) करना चाहिए ।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy