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________________ अज्ञ का विरोध : प्राज्ञ का विनोद १६६ भी साधक अपनी समस्थिति को भंग न होने दें। वह सोचे कि ये बेचारे अज्ञान की अंधेरी गलियों में भूलने-भटकने वाले राही हैं, ये तो मेरे शरीर पर ही आघात करके रह जाते हैं, मैंने तो इनके विचारों पर प्रहार किया है। ये मेरा जीवन तो समाप्त नहीं करते। यह निश्चित है कि शरीर के प्रहार की अपेक्षा वैचारिक शरीर का आघात अधिक मार्मिक होता है। चिन्तन की यह धारा साधक की मनःस्थिति को द्वष से विकृत होने से बचाती है। साथ ही शान्ति के ये शीतल छींटे उसकी आत्मा में कषाय की आग को भड़कने नहीं देते और इस प्रकार वह अपने प्रहारकर्ता को भी क्षमा कर सकता है। इन्हीं पवित्र विचारों ने अज नमूनि को अपने पर राजगृह के विविध रूप से प्रहार करने वालों के प्रति क्षमाभाव एवं साम्यभाव धारण करने को प्रेरित किया था। इन्हीं पवित्र विचारों ने तेजोलेश्या के द्वारा मर्मान्तक वेदना देने वाले गोशालक को भगवान महावीर से क्षमा प्रदान कराया था। विरोध का पंचम प्रकार : साधक को सहन शक्ति - अब इससे भी आगे बढ़कर प्रज्ञाशील साधक पर विरोधियों द्वारा प्राणान्तक प्रहार होने लगें, तब क्या करना चाहिए ? इसके लिए अर्हतर्षि का मार्गदर्शन इस प्रकार है (५) 'बाले य पंडितं जीवियाओ ववरोवेज्जा, तं पंडितं बहुमण्णज्जा दिट्ठा मे एस बाले जीविताओ ववरोवेति, णो धम्माओ भंसेति । मुक्खसभावा हि बाला । किंचि बालेहितो ण विज्जति । तं पंडिते सम्म सहेज्जा, खमेज्जा, तितिक्खेज्जा, अहियासेज्जा।" अर्थात - "यदि कोई अज्ञानी व्यक्ति किसी पण्डित का जीवन समाप्त करता है, तब भी पण्डित साधक उसे बहुत माने और सोचे--'खुशकिस्मती से यह अज्ञानी तो मेरा जीवन ही समाप्त कर रहा है, यह मुझे अपने धर्म से तो भ्रष्ट नहीं करता। अज्ञानीजन मूर्ख स्वभाव के होते हैं। वे जो न करें, वही कम है।' अतः पण्डित साधक उसे सम्यक प्रकार से सहन करे, क्षमाभाव रखे, शान्ति रखे तथा मन को समाधिभाव में रखे।" जब अज्ञान का आवेग तूफान पर होता है तो कभी-कभी नग्न सत्य के वक्ता को जीवन से हाथ धोना पड़ता है। और आश्चर्य नहीं, अज्ञानीजन विश्व के उस महा प्रकाश को अपने ही हाथों से बुझा दें। इतिहास साक्षी है कि मानव के विकास के लिए जिन्होंने नया प्रकाश दिया, क्रान्ति की नई लहर दी, जनजीवन को नया मोड़ दिया, उसे जनता ने क्या दिया ? किसी
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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