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________________ १६८ अमरदीपं बेंचारों की रोटी-रोजी छिन रही है, इसलिए इस तुच्छ स्वार्थभंग के कारण ईनका विरोध करना स्वाभाविक है। फिर भी ये बेचारे केवल डंडे आदि से ही प्रहार करके रह जाते हैं, शस्त्र प्रहार तो नहीं करते, यही गनीमत है। ये ही उदात्त विचार प्रज्ञावान साधक आत्मा को लाठी बरसाने वाले पर भी क्षमा बरसाने के लिए प्रेरित करते हैं । विरोध का चतुर्थ प्रकार और साधक की सहिष्णुता इससे भी आगे बढ़कर अज्ञानीजनों का टोला यदि विचारक साधक पर शस्त्रास्त्र आदि के प्रहार करने लगे तो उस समय वह क्या करे ? इसके लिए अर्हतर्षि ऋषिगिरि का मार्गदर्शन इस प्रकार है - (४) "बाले य पंडितं अण्णतरेण सत्थजातेणं अण्णतरं सरीरजायं अच्छिदेज्जा वा विच्छिदेज्जा वा, तं पडिए बहुमण्णेज्जा 'विट्ठा मे एस बाले अण्णतरेणं सत्थजातेणं अच्छिदति वा विच्छिदति वा, णो जीविता तो ववरोवेति, मुक्खसभावा हि बाला, " किंचि बालेहितो ण विज्जति ।' तं पंडिए सम्म सहेज्जा, खमेज्जा, तितिक्खेज्जा अहियासेज्जा। अर्थात् -यदि कोई अज्ञानी व्यक्ति किसी पण्डित साधक के किसी शारीरिक अवयव का किसी शस्त्रादि से छेदन करता है, भेदन करता है, तब भी पण्डित उसे बहुत माने । वह सोचे कि यह खुशी है कि यह बाल जीव मेरा किसी शस्त्रादि से ही छेदन-भेदन करता है, मेरे जीवन को तो समाप्त नहीं करता । अज्ञानी की प्रकृति में मूर्खता भरी रहती है। अज्ञानी जो न करे वही कम है। अतः साधक उस शस्त्रादि-प्रहार को समभाव से सहे, क्षमाभाव रखे, धैर्य से सहन करे और मन को समाधिभाव मे रखे। विचारक सन्त की सीधी और सच्ची बात भी कभी-कभी निहित स्वार्थी सत्ताधीशों की दुनिया में खलबली मचा देती है, धनिकों का आसन कम्पायमान हो जाता है। वे विरोध करने-कराने पर तुल जाते हैं। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा था-'सत्य अपने विरुद्ध एक आंधी पैदा कर देता है और वही उसके बीजों को दूर-दूर तक फैला देती है।' ऐसे विरोध के अवसर पर विचारक साधक यह सोचे कि हर विचारक को अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता है। सर्वप्रथम अज्ञ लोग उपहास करते हैं और गालियाँ देते हैं, जो सुधारक के लिए सर्वप्रथम उपहार है। जब इनसे वे कामयाब नहीं होते तो स्वार्थ और सत्ता के आक्रोश के बल पर वे तलवारें हाथ में लेकर निकल पड़ते हैं। किन्तु शस्त्र प्रहार के समय
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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