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अज्ञ का विरोध : प्राज्ञ का विनोद (१) बाले खलु पंडितं परोक्खं फरुसं वदेज्जा, तं पंडिते बहुमण्णेज्जा'दिट्ठा मे एस बाले परोक्खं फरुसं वदति, णो पच्चक्खं । मुक्ख-सभावा हि बाला, ण किंचि बातो ण विज्जति । तं पंडिते सम्मं सहेज्जा तितिक्खोज्ना अधियासेज्जा |
अर्थात् - यदि कोई अज्ञानी प्राणी किसी पण्डित साधक को परोक्ष में कठोर वचन बोले तो पण्डित उस को बहुत माने और यह सोचे कि -
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'यह तो अच्छा है कि यह व्यक्ति परोक्ष में ही कठोर शब्द कह रहा है, प्रत्यक्ष में तो कुछ नहीं कह रहा है। ये अज्ञानी व्यक्ति तो मूर्ख स्वभाव के होते हैं । अज्ञानियों से कुछ भी अछूता नहीं है ।' यह सोचकर विद्वान् साधक ( उनके निन्दात्मक कठोर वचनों को ) सम्यक् प्रकार से सहन करे, उनके प्रति क्षमाभाव रखे, तितिक्षा (सहनशीलता) बढ़ाए, और मन के समाधिभाव को नष्ट न होने दे ।
जिस समय अज्ञानियों द्वारा विद्वान् साधक की परोक्ष में कठोर शब्दों में कटु आलोचना हो रही हो, उस समय वह विवेकी साधक उत्तेजित न होकर वस्तुस्थिति पर विचार करके मन से ही उस विरोध का शमन करे । ऐसे परोक्ष विरोध के प्रसंग पर साधक विचार करे कि समाज में हर विचारक के सामने ऐसा होता ही आया है । जब समाज की सड़ी-गली परम्परा को तोड़कर कोई नया विशुद्ध समाज - हितकर मार्ग प्रस्तुत करता है तो समाज के अज्ञ लोग बौखलाते हैं, चीखते-चिल्लाते हैं । वे विचारविहीन लोग उसकी अप्रत्यक्ष आलोचना का आश्रय लेते हैं । उनमें इतना साहस नहीं होता कि वे प्रत्यक्ष में आकर कुछ कह सकें । ऐसे प्रसंगों में प्रज्ञाशील साधक अपने सुविचार का प्रदीप बुझने न दे और न ही उन पर आक्रोश करे । वह सोचे कि खुशी है कि ये बेचारे परोक्ष में ही मेरी आलोचना करके ही रह गए हैं, ये प्रत्यक्ष में आकर बोलने का साहस नहीं कर रहे हैं । ये बेचारे अज्ञानता से ग्रस्त हैं । इनकी आत्मा अज्ञानान्धकार में भटक रही है। ज्ञान की किरण का इन्हें स्पर्श नहीं हुआ है । साथ ही ये मूर्ख स्वभाव के हैं । यदि इनकी का जवाब दिया जाएगा तो इनकी आलोचना को बल मिलेगा । साथ ही हर मूर्ख अपने आपको सबसे बड़ा बुद्धिमान् मानता है । उसकी आलोचना से तो भगवान् भी नहीं बचे हैं, फिर हम जैसों की तो बात ही क्या ? ये विचार साधक की मनःस्थिति को सम रखने में सहायक होते हैं और निंदा एवं अपमान के कड़वे घूट को पी जाने का साहस भी देते हैं, इस प्रकार साधक दृढ़तापूर्वक अपने मार्ग पर आगे बढ़ जाता है ।
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