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________________ १८८ अमरदीप ___ मीठे जल से परिपूर्ण सभी नदियाँ लवणसमुद्र (खारे समुद्र) में मिलती हैं, उससे मिलते ही वे तत्काल अपनी स्वाभाविक मधुरता को छोड़कर (समुद्र का) खारापन प्राप्त कर लेती हैं ॥१४॥ रंग-बिरंगे विविध वर्ण वाले पक्षिगण जैब सुमेरुपर्वत पर पहुँचते हैं तो वे सबके सब स्वर्णप्रभा से युक्त हो जाते हैं। यह उस पर्वत का ही विशिष्ट गुण है ॥१५॥ ___ कल्याणमित्र के संसर्ग से मिथिलाधिपति संजय संपूर्ण पथ्वीतल को भोग कर उगते सूर्य की प्रभा वाले दिव्यलोक में पहुंचा ॥१६॥ महाशाल-पुत्र अर्हतर्षि अरुण इस प्रकार बोले-जितेन्द्रिय और प्रज्ञाशील साधक सम्यक्त्व और अहिंसा को सम्यक् प्रकार से जानकर सदैव. कल्याणमित्र का ही साहचर्य प्राप्त करे ॥१७॥ , ___ अर्हतर्षि अरुण सर्वप्रथम दुर्मित्र की पहचान बताते हैं कि जिसके जीवन में कुटिलता है । जो ऊपर-ऊपर से मीठा-मीठा , बोलता है, किन्तु हृदय में हलाहल कपट का जहर भरा है । अथवा जिसके विचारों में कुछ और ही बात है, वाणी दूसरी बात बोलती है और आचरण इन दोनों से भिन्न है ऐसा कुमित्र अपने साथी के दोनों लोक बिगाड़ता है। ऐसा व्यक्ति अपने साथी को जीवन के गंभीर क्षणों में धोखा देता है। वह सदैव अपने साथी को सावध कर्मों की ही प्रेरणा देता है। फलतः उसका साथी हर समय संकल्प-विकल्पों में डबता-उतराता रहता है। परलोक को सुधारने के लिए तो ऐसे कुमित्र से प्रेरणा ही कब मिल सकती है। जिसका स्वयं का इहलोक सुन्दर नहीं है, वह.परलोक को सुन्दर बनाने की प्रेरणा दे, यह असम्भव है। जो आत्मा को भूला हुआ है, वह साथी को आत्मा और परमात्मा का स्मरण क्या खाक करायेगा ? अतः ऐसे कुमित्रों से सदैव दूर रहो, उसकी चिकनीचूपड़ी बातों में मत आओ। सावधान रहो ऐसे मित्रों से जो पक्षी के समान तुम्हारे फलों से लदे जीवनवृक्ष के चारों ओर मडराते हैं । तुम्हारी प्रसिद्धि, श्रेष्ठता और सरलता का लाभ उठाकर तुम्हें बदनाम कर देगा। उस दिन वह पास भी नहीं फटकेगा, जिस दिन तुम्हारे जीवनवृक्ष के फल समाप्त हो जाएँगे । एक अंग्रेज विचारक कहता है 'Friends are plenty when your purse is full. जब तुम्हारा बटुआ तर होगा, तब तुम्हारे बहुत-से मित्र हो जाएंगे।' परन्तु ऐसे मित्र संख्या में हजार हों तो भी वे कल्याणमित्र नहीं, स्वार्थी मित्र होंगे, जो संकट के समय साथ नहीं देंगे।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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