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पहचान : बाल और पण्डित की १८७ रहना ही श्रेयस्कर है। विचारकों के साथ तत्त्वचर्चा में उनके द्वारा अनुभूत सिद्धान्तों और तथ्यों का नया चिन्तन-मनन मिलता है। धर्म चर्चा में धर्म के साथ-साथ अधर्म का स्वरूप भी नहीं समझा जाएगा, तब तक उससे बचना भी कठिन होता है। दुमित्र को पहचानो, कल्याणमित्रों का साहचर्य करो
अब अर्हतर्षि अरुण सन्मित्र (कल्याणमित्र) और दुर्मित्र का स्वरूप एवं कल्याणमित्र के सम्पर्क का महत्त्व बताते हुए कहते हैं
सम्भाव - वक्क-विवसं सावज्जारंभ - कारकं । दुम्मित्तं तं विजाणेज्जा. उभयो लोग-विणासणं ॥११॥ सम्मत्तणिरयं धीर, सावज्जारंभ-वज्जकं । तं मित्त सुठ्ठ सेवेज्जा उभओ लोक-सुहावहं ॥१२॥ संसग्गितो पसूयंति दोसा वा जइ वा गुणा। वाततो मारुतस्सेव ते ते गंधा सुहावहा ॥१३॥ संपुण्ण-वाहिणीओ वि, आवन्ना लवणोदधि ।। पप्पा लिप्पं तु सव्वावि पावंति लवणत्तणं ॥१४॥ समस्सिता गिरि मेरु, गाणावण्णा वि पविखणो। सम्वे हेमप्पभा होंति, तस्स सेलस्स सो गुणो ॥१५॥ कल्लाणमित्त-संसग्गि संजओ मिहिलाहिवो।
फीतं महितलं भोच्चा तं मूलाकं दिवंगतो ॥१६॥ अरुणेण महासालपुत्तेण अरहता इसिणा बुइतं
सम्मत्तं च अहिंसं च सम्मं णच्चा जिोतदिए।
कल्लाणमित्त-संसगिंग, सदा कुवेज्ज पंडिए ॥१७॥ . अर्थात्-अपने वक्र स्वभाव से विवश होकर जो सावध आरम्भ करता है, उसे दुर्मित्र समझना चाहिए, क्योंकि वह दोनों लोकों का विनाश करता है ॥११॥
सम्यक्त्व में तिरत, सावद्य आरम्भ से दूर एवं धर्यशील मित्र (सन्मित्र) का अच्छी तरह साथ करना चाहिए, क्योंकि ऐसे कल्याणमित्र का साथ दोनों लोकों में हितावह है ॥१२॥
संसर्ग से दोष या गुण पैदा होते हैं। हवा जिस ओर बहती है, उस ओर की सुगन्ध दुर्गन्ध को ग्रहण कर लेतो है ॥१३॥