SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पहचान : बाल और पण्डित की १८६ अतः याद रखो, सन्मित्र जीवन का अमूल्य खजाना है, जबकि कुमित्र धनहरण करने वाले चोर के समान है। जो तुम्हारे अवगुणों पर पर्दा डाल कर तुम्हारी चापलूसी करता है । ऐसे मित्र से दूर रहो। जिसके पास सम्यक्त्व का प्रकाश है, ऐसा धीर एवं निरवद्य-कार्य करने वाला पवित्र व्यक्ति ही सच्चा मित्र है, उसी का साथ करना चाहिए। वही सच्चे माने में साधक का कल्याणपथ-दर्शक मित्र एवं साथी है । अंग्रो जी कहावत है Lit'e bas no blessing like a prudent friend. ज्ञानी मित्र के समान जीवन में दूसरा कोई वरदान नहीं है । ऐसा ज्ञानी मित्र जीवन के उन कट प्रसंगों में जबकि तुम्हारा धैर्य जवाब देने लगेगा, तुम अपने धर्म, कर्तव्य या दायित्व से गिरने-फिसलने लगोगे, तब तुम्हें सच्ची राह दिखायेगा, सच्ची सलाह देगा, क्योंकि उसके मन में स्वार्थ की गन्ध नहीं है । अतः ऐसे साथी से तुम्हें प्रकाश की प्रेरणा ही मिलेगी। ऐसे सच्चे मित्र में एक माता की-सी कोमलता और धीरता होती है, एक हितैषी कुशल वैद्य की-सी निपुणता और परख होती है। वह साथी के संकट को भलीभाँति समझकर उसमें से उबरने का सही रास्ता बता देता है । ऐसा मित्र अपने साथी को अपने पास से देकर भूल जाता है और साथी से जो लेता है, उसे सदैव कृतज्ञतापूर्वक याद करता है। अच्छे संसर्ग से गुण और बुरे संसर्ग से दोष पैदा होते हैं। हवा अगर सुरभित स्थान से होकर गुजरती है तो वहाँ की सौरभ लेकर आगे बढ़ती है और यदि वह गंदगी से होकर गुजरती है तो स्वयं भी दूषित हो जाती है, दूसरों को भी दुर्गन्धित कर देती है। इसी प्रकार जीवन भी एक वायु है। जो साधक सज्जन पुरुषों के साहचर्य में रहता है, वह सद्गुणों की सुवास प्राप्त करता है और बुरे व्यक्ति के पास पहचता है तो वहाँ से बुराई ग्रहण करता है। बुरे के संसर्ग से कैसे दोष आ जाता है, इसे अर्हतर्षि उदाहरण देकर बता रहे हैं कि नदियाँ मधुर जल राशि लेकर समुद्र में पहुंचती हैं, किन्तु मिलन के प्रथम क्षण में समुद्र के खारे जल के संसर्ग से अपनी सारी मधुरिमा खो बैठती हैं। उसकी सारी जलराशि क्षार-मिश्रित हो जाती है । इत्र की शीशी में दो बूंद मिट्टी का तेल गिर जाता है तो उसमें सुगन्ध के स्थान पर मिट्टी के तेल की दुर्गन्ध आने लगेगी। प्रकृति की तरह मानव का भी यही स्वभाव है ! वह दूसरों के सद्गुण तो देर से ग्रहण करता है, किन्तु
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy