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________________ ऋषियों की दिव्यकृषि १७७ आध्यात्मिक खेती के प्रसाधन भी आध्यात्मिक ही होंगे। भौतिक साधनों से आत्मा की खेती नहीं हो सकती। अर्हतर्षि उसी आध्यात्मिक खेती का निरूपण करते हुए कहते हैं कि आत्मा ही मेरा क्षेत्र है, जिस पर मुझे यह खेती करनी है। साधना का मूल प्राण है-आत्मा । आत्मा ही नहीं है तो फिर कैसा धर्म और किसकी शुद्धि के लिए या किसके शुद्धस्वरूप को पाने के लिए रत्नत्रय साधना की जाय ? अतएव आत्मा को ही इस दिव्य कृषि का मूल अधिष्ठान-क्षेत्र माना गया । ___ जब आत्मा है तो प्रश्न होता है, उसका स्वरूप क्या है ? शरीर आत्मा से बिल्कुल भिन्न है। शरीर के गुणधर्मों से आत्मा के गुणधर्म निश्चित ही भिन्न हैं । परमानन्द पंचविंशतिका में कहा है नलिन्यां च यथा नीरं, भिन्नं तिष्ठति सर्वदा । अयमात्मा स्वभावेन, देहे तिष्ठति सर्वदा ।। जिस प्रकार पानी से कमलिनी सदैव पृथक (निलिप्त) रहती है, उसी प्रकार यह आत्मा देह में सदैव स्वभाव में स्थित रहता है। शरीर से भिन्नं आत्मा का शुद्ध स्वरूप भिन्न है; किन्तु वर्तमान में आत्मा वासना के कारण संसार के कीचड़ में लिप्त है । वह पुनः शुद्ध स्थिति पा सकता है या नहीं ? यदि पा सकता है तो उसके उपाय क्या हैं ? इन सभी परेनों के समाधान के रूप में इस दिव्य कृषि को प्रमुख उपाय बताया है जिसके द्वारा आत्मा अपनी शुद्ध स्थिति पा सके। उसके प्रमुख साधन हैं-तप, संयम, अहिंसा और पंच समितियाँ । दिव्य कृषि के लिए बारह प्रकार के तपरूपी बीज हैं, जिनसे आत्मा रूपी क्षेत्र की शुद्धि होगी। कहा भी है- 'तवसा परिसुज्झई'-तप से परिशुद्धि होती है। सत्रह प्रकार का बाह्य तथा सत्रह प्रकार का आभ्यन्तर संयमरूपी हल हैं, जो आत्मा रूपी क्षेत्र के ऊपर जमे हुए कषायों और विषयों के कंकरकाँटों को उखाड़कर हृदयभूमि को समतल एवं मुलायम बनाते हैं साथ ही अहिंसा और पाँच समिति ये दो पुष्ट बैल हैं, जो आत्मा रूपी क्षेत्र में ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप धर्म की साधना को परिपक्व बनाते हैं । यही ऋषियों की धर्ममयी कृषि है। इस दिव्य कृषिकर्ता की योग्यता प्रश्न होता है, यह दिव्यकृषि केवल वाणी विलासरूप है, या इस कृषि को कोई कर भी सकता है ? यदि इस दिव्य कृषि को कर सकता है तो कौन कर सकता है ? इस द्व्यि कृषि का परिणाम क्या है ? इस विषय में अर्हतषि पिंग कहते हैं
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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