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________________ १७८ अमरदीप एसा किसी सोभतरा, अलुद्धस्स वियाहिता । एसा बहुसई होइ, परलोक-- सुहावहां ।। ३।। यह खेती शुभतर है, किन्तु इसे मिलोभी व्यक्ति ही कर सकता है। यह खेती अतिसुन्दर है और परलोक में सुखप्रद है। ' वस्तुतः यह आध्यात्मिक कृषि प्रशस्त है, शुद्ध है या शुभतर है। किन्तु इस कृषि के योग्य वही साधक हो सकता है, जो निर्लोभी हो । जो साधक स्वयं तो परिग्रह का त्यागी हो, लेकिन उसे परिग्रहधारियों की पीठ थपथपाकर उनसे प्रतिष्ठा, प्रशंसा, प्रसिद्धि पाने का लोभ हो, रस-लोलुपता हो, शिष्य-शिष्या लोलुपता हो, अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए समकित की अदलाबदली कराने का लोभ हो; लिप्सा हो, वह साधक इस दिव्यकृषि को शुद्ध रूप में नहीं कर पायेगा। किसी भी प्रकार का लोभ हो, लोभ खतरनाक है। वह सूक्ष्म रूप से बहुत दूर-दसवें गुणस्थान तक रहता है। लोभी व्यक्ति प्रायः आन्तरिक बहरा होता है, वह आत्मा की आवाज को अनसुनी कर देता है । एक विचारक ने कहा है लोभी का मन रेगिस्तान की उस बंजर भूमि जैसा होता हैं, जो तमाम बरसात और जोत को सोख लेती है; किन्तु कोई फलद्र म, जड़ी या ब्रटी नहीं उगाती। लोभी साधक के मन के रेगिस्तान में शान्ति की लता भी नहीं उग सकती। इस प्रकार का लोलुप मन चैतन्य धन को नहीं पा सकता। आध्यात्मिक खेती का लक्ष्य चैतन्य लक्ष्मी प्राप्त करना है, अतः इसे संतोषी, निःस्पृह, मुधाजीवी, त्याग-वैराग्य परायण आत्महितैषी साधक ही प्राप्त कर सकता है । पार्थिव खेती शरीर की भूख मिटाती है, जबकि आत्मिक खेती आत्मा की । पहली खेती इस जीवन को सुखप्रद है, जबकि दूसरी अगले जीवन के लिए हितप्रद। अहिंसा की खेती परलोक में अवश्य सुखप्रद होती है, किन्तु इसका यह फलितार्थ निकालना गलत होगा कि अन्न की खेती पर लोक के लिए दुःखप्रद होगी। आगम साक्षी हैं । भगवान महावीर के उपासक गृहस्थ खेती करते थे, उन्होंने श्रावक के बारहव्रत भी अंगीकार किये थे, उनका इहलौकिक जीवन भी सुखद था, पारलौकिक जीवन भी। आगे अर्हतर्षि इसी कृषि को करने वाले में मुख्य सद्गुण का निरूपण करते हुए कहते हैं एवं किसिं कसित्ताणं, सव्वसत्तदयावहा । माहणे खत्तिए वेस्से सुद्देवा वि य सिज्मति ।।४।।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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