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ऋषियों की दिव्यकृषि १७५ कृषि, दूसरा गोरक्षण और तीसरा वाणिज्य रहा है। भगवान् ने श्रमणोपासकों की कृषि को अल्पारंभ बताया है, महारम्भ नहीं।
शरीर और आत्मा अनादि से सहयात्री रहे हैं । शरीर के लिए भोजन आवश्यक है, इसी प्रकार आत्मा के लिए भी भोजन आवश्यक है। किन्तु आत्मा का भोजन शरीर के भोजन से भिन्न होगा । किसी विचारक ने ठीक कहा है
'शरीर का भोजन अन्न है. तो आत्मा का भोजन करुणा है।' • शरीर की खुराक के लिए पार्थिव कृषि आवश्यक है, तो आत्मा के भोजन के लिए अपार्थिव कृषि आवश्यक है। गृहस्थ हो चाहे ऋषि, दोनों को शरीर की सुरक्षा के लिए भोजन देना आवश्यक है, परन्तु शरीर को खुराक देते समय दोनों अपनी-अपनी मर्यादा में रहते हुए आत्मा को खुराक देना भूल न जाएँ। पृथ्यी पर रहकर भी अपार्थिव से प्रेम करना सीखना है। आत्मा की खुराक के लिए.जो खेती होगी, वह पार्थिव नहीं, अपार्थिव होगी।
प्रस्तुत बत्तीसवें अध्ययन में ब्राह्मण परिव्राजक पिंग अर्हतर्षि ऋषियों के लिए इसी दिव्यकृषि का सन्देश दे रहे हैं
दिवं भो ! किसि किसेज्जा णो अप्पिणेज्जा । . पिंगेण माहण परिवायएणं अरहता इसिणा बुइतं । 'हे साधक ! तू दिव्य कृषि कर, उसका परित्याग मत कर, इस प्रकार माहन (ब्राह्मण) परिव्राजक पिंग अर्हतर्षि बोले।'
पिंग अर्हतर्षि स्वयं ब्राह्मण-परिवार में जन्मे थे और बाद में वे परिव्राजक बने थे। परिव्राजक के रूप में साधना कर उन्होंने अर्हतत्त्व प्राप्त किया था। जिसे सत्यदृष्टि प्राप्त हो चुकी है, उसके विकास में बाहरी वेष, लिंग, जाति, वर्ण आदि बाधक नहीं हो सकते । जैन धर्म का स्पष्ट आघोष है यदि तुम्हें सत्यदृष्टि मिल चुकी है तो तुम किसी भी देश, वेष, लिंग, जाति, वर्ण, धर्म-सम्प्रदाय आदि में रहो तुम साधना के पथ पर हो । सिद्धिप्राप्ति के पन्द्रह मार्गों में 'अन्यलिंग सिद्धा' को स्वीकार कर जेनधर्म ने बहुत बड़ी विचार क्रान्ति का परिचय दिया है।
श्रमण भगवान महावीर के युग में बहत-से ऐसे साधक थे, जिनका वेश और क्रियाकाण्ड दूसरे तीर्थ (धर्म सम्प्रदाय) का था, किन्तु वे अन्तर् से प्रभु महावीर के भक्त थे । अन्तद्रष्टा भ महावीर ने उन्हें उत्कृष्ट श्रावक के रूप में स्थान भी दिया। अम्बड़ परिव्राजक भी ऐसा ही साधक था,