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ऋषियों को दिव्यकृषि
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धर्मप्रेमी श्रोताजेनो!
क्या आप जानते हैं, भारतीय संस्कृति का मूलाधार क्या है ? भगवान् ऋषभदेव ने कर्मभूमि का युग प्रारम्भ होते ही समस्त जनता को बोध देते हुए कहा था-गृहस्थ हो तो 'कृषि' करो और उच्च साधना करना चाहो तो 'ऋषि' बनो । अतः कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति के दो ही आधार हैं 'कृषि' एवं 'ऋषि'।
___ कोई कह सकता है कि कृषि नहीं होती तो क्या हानि थी ? भगवान ऋषभदेव के युग की ओर झाँके तो मालूम होगा कि जब अकर्मभूमि युग समाप्त हो गया तो कल्पवृक्ष सूखने लग गये । जनसंख्या बढ़ती जा रही थी। परन्तु उनके पेट भरने के लिए अब बहुत ही कम साधन रह गये थे। युगलियों में भोजन और सामग्री के लिए आपस में तू-तू-मैं-मैं और छीना-झपटी होने लगी थी । ऐसे समय में अगर भगवान् ऋषभदेव उस यौगलिक जनता को कृषि का मार्ग न दिखाते तो जनता अवश्य ही मांसाहार की ओर बढ़ जाती, परिणामतः अत्यन्त बर्बर हो जाती । उनमें दयाभाव, संतान के पालन-पोषण का वात्सल्यभाव, करुणाभाव, समाज में परस्पर सहयोग और स्नेहभाव स्थापित न होता । खेती में पशुओं तथा अन्य मनुष्यों के सहयोग की आवश्यकता रहती है। इस रूप में खेती परस्पर सहयोग की प्रेरणा देती है । टुण्ड्रा जैसे देश में खेती नहीं होती, वहाँ के निवासी आज भी मांसाहार पर निर्भर हैं। पशुवध के द्वारा प्राप्य माँस-भोजन मानव-मन की सहज कोमलता को, करुणा के अंकुरों को समाप्त कर देता है। पशुओं की गर्दन पर चलने वाला छूरा कभी आवेश में मानव की गर्दन काटते भी नहीं हिचकेगा। यही कारण है कि भगवान् महावीर के उस युग के आदर्श श्रमणोपासक आनन्द, कामदेव आदि के जीवन निर्वाह का प्रथम आधार