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________________ १७० अमरदीप निरुपाधिक और सोपाधिक गति और परिणाम पूर्वगठ के नौवें प्रश्न के उत्तर में जीव (आत्मा) की स्वाभाविक या निरुपाधिक गति ऊर्ध्वगामी बताई है, परन्तु साथ ही जीव की कमजन्य सोपाधिक गति अधोगामी भी बताई हैं । अतः इस सम्बन्ध में प्रश्न होता है कि ऊर्ध्वगामी गति किन जीवों की और किस कारण से होती है, और अधोगामों गति किन जीवों की और किस कारण से होती है ? तथा ऊर्ध्वगति वाले जीवों को ऊर्ध्वगमन करने के बाद सुख-दुःख का वेदन होता है या नहीं ? एवं अधोगतिवाले जीवों को अधोगमन करने के बाद किस प्रकार के सुख-दुःख का वेदन होता है ? इन्हीं कुछ प्रश्नों का समाधान अर्हतर्षि पार्श्व अगले पाठ में करते हैं व इमा पया कयाइ अव्वाबाहसुहमेसिया कसं कसाविता । जीवा दुविहं बेदणं वेदेति, पाणातिवातविरमणेणं जाव मिच्छादसणविरमणेणं किन्नु जीवा सातणं वेदणं वेदेति । जस्सट्ठाए विहेति, समुच्छिज्जिस्सति अट्ठा समुच्छिट्ठिस्सति णिद्वितकरणिज्जे संति ससार भगा मडाई नियंठे णिरुद्ध पवंचे वोच्छिण्णसंसारे वोच्छिण्ण संसार-वेदणिज्जे पहीणसंसारवेयणिज्जे णो पुणरवि इच्छत्थं हवमागच्छति ।' 'कोई भी (सांसारिक) जीव कष अर्थात् कषाय अथवा हिंसा को करके कदापि (मुक्ति का) अव्याबाध सुख प्राप्त नहीं कर सकता। . (कर्मोपाधिक ऊर्ध्व-अधस्तिर्यग्गतिगामी) सांसारिक जीव भी दो प्रकार की वेदना का अनुभव (वेदन) करते हैं-(एक सुखरूप वेदना और दूसरी दुःखरूप वेदना) । जो जीव प्राणातिपात आदि से लेकर मिथ्या दर्शनशल्य तक (अठारह पापस्थानों से विरत होते हैं, वे साता वेदनीय का अनुभव करते हैं । (जो प्राणातिपातादि से विरत नहीं होते, वे असातावेदनीय-दुःखरूप वेदन करते हैं ।) किन्तु जो साधक जिस उद्देश्य से दीक्षित हुआ है। उस प्रयोजन से (कर्ममुक्ति की साधना के लिए) उद्यत हो जाता है, जो (मोक्ष के लिए पुरुषार्थ करके) अपने कार्य को सम्पन्न कर चुका है, ऐसा प्रासुक (अचित्त) भोजी निम्रन्थ संसार को भग्न करके प्रपंचों को रोक देता है। संसार को विच्छिन्न कर देता है, संसार की वेदनीय वेदना को भी विच्छिन्न कर देता है, फिर वह संसार रहित और संसार की वेदना से रहित होकर पुनः संसार (लोकभाव) में नहीं आता है। यहाँ गति के सन्दर्भ में अर्हतर्षि निरुपाधिक और सोपाधिक गति के कारणों का निरूपण करते हैं।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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