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________________ १६२ अमरदीप कल्याण का मधुर और पाप का कटु फल अर्हतर्षि वायु ने इसी पर विवेचना करते हुए कहा है कल्लाणा लभति कल्लाणं, पावं पावा तु पावति । हिंसं लभति हतारं, जइत्ता य पराजय ।।४।। सूदणं सूदइत्ताणं णिदित्ता वि य णिवणं । अक्कोसइत्ता अक्कोसं णत्थि कम्मं णिरत्थकं ॥५॥ . आत्मा कल्याण से कल्याण प्राप्त करता है और पापशील विचारधारा के द्वारा वह पाप (कटुफल) को प्राप्त करता है । हिंसक व्यक्ति हिंसा के द्वारा हिंसा को प्राप्त करता है। वह विजय पाकर भी पराजित होता है ॥४॥ पकाने वाले को एक दिन पकना होगा। दूसरे की निन्दा पर मुस्कराने वाले को एक दिन निन्दित होना पड़ेगा। आक्रोश करने वालों पर दूसरे आक्रोश किये बिना नहीं रहेंगे, क्योंकि कोई भी कर्म निरर्थक नहीं जाता ॥५॥ . आत्मा की जैसी भावना होती है, उसके अनुरूप उसका जीवन बनता है। कल्याणमय भावना उसे कल्याणमय बनाती हैं, और पापशील भावना पापशील । कई बार तत्काल पाप का फल मिलता है हिंसा के द्वारा मनुष्य कुछ देर के लिए जय भी पा लेता है किन्तु अन्याय-अत्याचार एवं छीना-झपटी के द्वारा शस्त्रास्त्रों के बल पर पाई हुई विजय एक दिन पराजय में बदल जाती है। दूसरों के गलों पर छुरी फेरने वालों को भी उनके पापकर्मों का फल मिले बिना नहीं रहता। ध्वनि के अनुरूप प्रतिध्वनि होती है, क्योंकि सभी कर्म अपने साथ प्रतिफल लिये रहते हैं। दूसरों की बदनामी, आलोचना या निन्दा करने में जिन्हें आनन्द आता है, उन्हें पता नहीं है, हमारी भी उसी तरह से निन्दा या बदनामी, आलोचना में दुनिया रस लेगी। जो आज कहते हैं कि हम ऊँचे (उत्कृष्ट) हैं, दूसरे नीचे (निकृष्ट या शिथिल) हैं, हम अच्छे और दूसरे बुरे हैं । मन का अहंकार आज उनके मुह से यह बुलवा रहा है; किन्तु कल जब बाहर की सफेद चदरिया उड़ जायगी, और दुनिया के सामने उनका सही रूप आएगा, उस दिन दुनिया देखेगी कि उच्च आचार का दम्भ रखने वाले कितने गहरे पानी में थे।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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