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जैसा बोए, वैसा पाए १६१
अमुक व्यक्ति पापकर्म करता है, फिर भी वह बहुत आनन्द में है, खूब अच्छा खाता, पीता और मौज करता है, परन्तु इससे यह अनुमान नहीं लगाना चाहिए कि यह उसके पापकर्मों का फल है । यह तो उसके किसी पूर्वकृत शुभकर्म का फल है, अभी वह जो पापकर्म कर रहा है, उसका फल तो उसे भविष्य में भोगना ही पड़ेगा । उसमें देर हो सकती है, अन्धेर नहीं ।
जैसा बोएगा, वैसा ही पाएगा
इसी तथ्य को उजागर करते हुए अर्हतर्षि वायु कहते हैं
जारिसं वुप्ते बीयं तारिस भुज्जए फलं । गाणा - संठाण सम्बद्ध, नागा- सण्णाभिसणितं ॥ २ ॥
जारिसं किज्जते कम्मं, तारिसं भुज्जते फलं । णाणा-योग-वित्तं, दुक्खं वा जइ वा सुहं ॥३॥
अर्थात् - 'खेत में जैसा बीज बोया जाता है, वैसा ही फल भोगा जाता है, जो कि नानाविध आकृतियों में होता है और नानाविध संज्ञाओं से पुकारा जाता है । जैसा कर्म किया जाता है, वैसा ही फल भोगा जाता है । नानाविध प्रयोगों से कर्म निष्पन्न होते हैं, वे या तो सुखरूप होते हैं, या दुःखरूप होते हैं ।'
कर्मशास्त्र का यह अटल सिद्धान्त है कि जो कर्म जिस रूप में, जिस तीव्र मन्द - मध्यम परिणाम से बाँधा जाता है, उसका फल उसी रूप में मिलता है । जैसा बीज होगा, वैसा ही प्रतिफल होगा। नीम का बीज बो कर कोई आम का फल चाहे तो उसे कदापि नहीं मिलेगा ।
कर्म बांधने के बाद भोगना निश्चित है तक हम स्वतन्त्र हैं । पर एक बार कर्म बांध लिये जाते हैं, उन्हें
जब तक कर्म न किये जाएं, तब शुभ या अशुभ अध्यवसाय के द्वारा जो भोगना तो पड़ता ही है। एक अंग्रेज विचारक ने कहा है
What is done, cannot be urdone.
किये हुए कर्म को मिटाया नहीं जा सकता । रोग, शोक, दुःख, दारिद्र आदि से तो चिकित्सा, सांत्वना, सुख और धन प्राप्ति द्वारा छुटकारा मिल सकता है, परन्तु कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता । इसीलिए कहा है "कडाण कम्माण ण मोवख अत्थि' |
कर्म वह दर्पण है, जो मनुष्य को अपना स्वरूप बता देता है |