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________________ १६० अमरदीप और दूसरे ने इस प्रकार से ज्ञानादि की अवहेलना नहीं की, इसलिए उसका बौद्धिक विकास अच्छा हुआ है। यह है-बुद्धिकृत भेद का रहस्य । इसी प्रकार जिस व्यक्ति ने दूसरे को रुलाया है, उसका शोषण एवं उत्पीड़न किया है, वह भी तज्जन्य कर्मों को एकत्रित करता है, जब तक वे कर्म उदय में रहते हैं, तब तक कितने ही उपचार किये जाएं, उसे स्वास्थ्य लाभ नहीं हो सकता। आत्मा जो भी शुभ या अशुभ का अनुभव करता है, यह उसके पूर्वबद्ध कर्म का ही प्रतिफल है । वर्तमान में प्राप्त दुःख का कारण भले ही वर्तमान में न दिखाई दे, किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि उसका कारण है ही नहीं। जिस आम को आप लोग आज खाते हैं, उसके बोने वाले का नाम. और पता, शायद आप बता न सकें, पर इतना तो सुनिश्चित है कि यह आम किसी न किसी के द्वारा एक दिन अवश्य ही बोया गया था, जो आज फल और पतों से समृद्ध हुआ है। निष्कर्ष यह है कि आत्मा शुभ या शुभ अध्यवसायों द्वारा जो कर्मबन्ध करता है, उसका प्रतिफल अमुक कालसीमा के बाद उदय में आता है। बांधे हुए कर्म उसी समय उदय में नहीं आते। उन्हें प्रतिफल देने में कुछ काल अवश्य लगता है। इस बीच के काल को कर्मशास्त्र में 'अबाधाकाल' या 'विपाक-काल' कहा जाता है। इसे अबाधाकाल इसलिए कहते हैं कि बाँधा हुआ कर्म अमुक काल तक बाधक नहीं होता। यह कालसीमा कम से कम एक अन्त-मुहर्त की है, और अधिक से अधिक तो उन-उन कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है। जो कर्म जिस क्षण बाँधे जाते हैं, उसी क्षण उनका भोग नहीं हो सकता । बाँधने और भोगने का समय अवश्य ही भिन्न होना चाहिए। इसीलिए 'अबाधाकाल माना जाता है। किसी-किसी कर्म का विपाक (फल) इतने समय तक क्यों रुका रहता है ? उसका एक कारण यह भी हो सकता है कि जब आत्मा स्वर्गादि में शुभ कर्मों का सुखानुभवरूप शुभ प्रतिफल भोग रहा हो, तब शुभोदय में अशुभोदय नहीं हो सकता। उतने समय तक अशुभोदय रुका रहता है। यही विपाककाल या अबाधाकाल को मानने का रहस्य है। कर्म का फल निश्चित है परन्तु एक बात निश्चित है कि मनुष्य जैसे भी शुभाशुभ कर्म करता है, उसके शुभाशुभ फल उसे भोगने ही पड़ते हैं । कई लोग कहते हैं कि
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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