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________________ जैसा बोए, वैसा पाए १५६ अतः वायु-अर्हतर्षि इस मान्यता का निराकरण करते हेतु कहते हैं कि यह विराट् विश्व स्वप्न नहीं, सत्य है। ___ यदि विश्वव्यवस्था सत्य है तो सृष्टि में यह विचित्रता क्यों है ? विश्व की विचित्रता का रहस्य जानने के लिए हमें इसे दो रूपों में बांटनी होगा---(१)--प्राकृतिक विचित्रता और (२) प्राणिजन्य विचित्रता। प्राकृतिक विचित्रता स्वाभाविक है। प्रकृति का विचित्रता भरा सौन्दर्य स्वाभाविक है। सूर्य दिन को ही क्यों आता है, रात को क्यों नहीं ? पूर्व में ही उसका उदय होता है, पश्चिम आदि दिशाओं में क्यों नहीं ? आम गर्मियों में ही क्यों आता है, शीतकाल में क्यों नहीं ? गेहूं की फली ही लम्बी और बालवाली क्यों होती है जुआर की क्यों नहीं ? मयूर के पंख जैसे सुन्दर रंग से रंगे हैं, वैसे मुर्गे के क्यों नहीं ?, इन सबका समाधान तर्क के पास नहीं है, कहना होगा, यह सब प्रकृतिजन्य विचित्रता स्वाभाविक है । प्राणिजन्य विचित्रता का समाधान स्वभाव से नहीं हो सकता । सभी मनुष्यों का स्वभाव समान होने पर भी बुद्धिकृत, शरीरगत, इन्द्रियगत अथवा अन्य वस्तुगत जो भेद दिखाई देता है, वह क्यों है ? किस कारण से है ? एक व्यक्ति एक घटे में पच्चीस श्लोक याद कर लेता है, जबकि दूसरा दस घंटे में एक भी श्लोक याद नहीं कर पाता । एक ही सरीखी बीमारी वाले दो रोगियों को वैद्य एक ही प्रकार की दवा देता है, फिर भी एक स्वस्थ हो जाता है, जबकि दूसरे की बीमारी बढ़ गई है। इसका रहस्य क्या ? इसका समाधान अर्हतर्षि वायु देते हैं इध जं कीरते कम्म, तं परतोऽवभुज्झह । मूलसेकेसु रुक्खेसु, फलं साहासु दिस्सति ॥१॥ अर्थात्-जो कर्म यहाँ किये आते हैं, उनका फल परलोक में अवश्य भोगना पड़ता है। जिन वृक्षों की जड़े सींची गई हैं, उनके फल शाखाओं पर दिखाई देते हैं। इसका आशय यह है कि, संसार को इन विचित्रताओं और विविधताओं का रहस्य 'कर्म' है, स्वभाव नहीं । चेतना शक्ति सब में समान होने पर भी जिस मनुष्य ने यहाँ ज्ञान की या ज्ञानी की अवहेलना की है, ज्ञान के साधनों का तिरस्कार किया है, उसका वह दुष्कृत्य राग-द्वेष के कारण कर्मवर्गणा के सूक्ष्म कर्मपरमाणुओं को आकर्षित करता है और वे कर्म पुद्गल उसकी ज्ञानचेतना को अवरुद्ध कर देते हैं, इसलिए उसको बुद्धि मन्द हुई
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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