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________________ जैसा बोए, वैसा पाए ! धर्मप्रेमी श्रोताजनो! हजारों कोसों में फैला हुआ यह विस्तृत भूखण्ड विचित्रताओं और विविधताओं का भण्डार है। प्रश्न होता है, इस विश्व को विचित्रता किसने दी ? कुछ श्रद्धालु जनमानस घडाघड़ाया उत्तर कह देगा-'सृष्टि की विचि. त्रता भरी सुन्दरता उस ईश्वर की देन है, वही जगत् का कर्ता, हर्ता और धर्ता है।' परन्तु श्रद्धावश दिया गया यह उत्तर जितना सरल है, तर्क की पराजू पर तोलने पर उतना ही विसंगत और पेचीदा बन जाता है । सर्वप्रथम यह ज्वलन्त प्रश्न उठता है कि कर्ममुक्त देहादिरहित उस ईश्वर को सृष्टि रचना करने और इसमें इतनी विचित्रताएँ भरने की क्या आवश्यकता थी? करुणामय ईश्वर को सृष्टि बनानी ही थी तो वह सृष्टि में सुन्दर, स्वस्थ, बुद्धिमान् एवं सद्गुणवान् धार्मिक प्राणी ही बनाता; पापी कुरूप, रोगी, दुबुद्धि और दुगुणी व्यक्ति बनाने की क्या आवश्यकता थी? इस प्रकार जगत्कर्तृत्व के विषय में अनेकानेक आपत्तियों आती हैं, जिनका कोई सही और युक्तियुक्त समाधान नहीं है । प्रस्तुत तीसवें अध्ययन में अर्हतर्षि वायु इन प्रश्नों का समुचित समाधान दे रहे हैं-- 'अधासच्चं इणं सवं, वायुणा सच्चसंजुत्तेणं अरहता इसिणा बुइयं ।' अर्थात्- 'यह विराट् विश्व सत्य है ।' सत्यसंयुक्त अर्हतर्षि वायु ने इस प्रकार कहा। कुछ दर्शन इस विराट् सुष्टि को माया या कल्पना और कुछ लोग स्वप्न बताते हैं। यदि सृष्टि माया हो है तो यह माया क्या है ? कोई तत्त्व है या नहीं ? यदि माया कोई तत्व नहीं है तो दिखाई क्यों देती है ? यदि तत्त्व है तो फिर माया (अवास्तविक कल्पना) कैसी ? यह तो वैसा ही हुआ, किसी स्त्री को माता भी कहना वन्ध्या भी।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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