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________________ १५६ अमरदीप तपःसाधना तभी सफल और सम्यक् हो सकती हैं, जब वह मन और कषायों पर पहले विजय पा ले । मन में यदि नामना-कामना, इच्छा-तृष्णा भरी है, इहलोक-परलोकाशंसा भरी है तो वह तपःसाधना दूषित हो जाएगी। इसी प्रकार तपस्या के साथ क्रोध, अभिमान, माया या लोभ, इनमें से किसी भी कषाय ने तपस्या के पावन पथ पर अधिकार जमा रखा है, तो वह तपस्या भी मोक्ष की ओर गति करने के बदले संसार की ओर गति करेगी। कषाय और तपस्या दोनों एक साथ चल नहीं सकते । इन दोनों का कतई मेल नहीं नहीं है । परन्तु आज तो उलटी गंगा बह रही है । तपस्वी साधकों में क्रोध और अभिमान की मात्रा प्रायः बढ़ती देखी जा रही है । आजकल तो प्रलोभन देकर भी तपस्या कराई जाती है। यह स्थिति तपस्या के साथ अच्छी नहीं है । अतः इन्द्रियविजय की तपस्या करने से पूर्व साधक. को मन और कषायों पर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिए।' निष्कर्ष यह है कि तप के साथ साधक का मन विषय-लालसा से मुक्त हो, और कषायों से विरत हो, तभी उसकी आत्मा उज्ज्वलं-समुज्ज्वल हो सकती है, होमयोग्य पदार्थों से आहूत अग्नि की भांति वह देदीप्यमान हो उठती है। इन्द्रियविजेता विश्ववन्द्य और मुक्त होता है ऐसे जितेन्द्रिय धीर साधक की आत्मा कितनी उच्च और शुद्ध बन जाती है ? इसके विषय में अर्हतर्षि वर्धमान इस अध्ययन की अन्तिम दो गाथा और द्वारा कहते हैं सम्मत्तणिरतं धीरं दन्तकोहं जितिदियं । देवा वि तं गमंसंति, मोक्खे चेव परायणं ॥१८॥ सम्वत्थविरए दंते, सव्वचारोहिं वारिए। सव्वदुक्खप्पहीणे य, सिद्ध भवति णीरए ॥१६॥ अर्थात् - सम्यक्त्व में निरत, धैर्यशील, क्रोधविजेता और जितेन्द्रिय तथा मोक्षपरायण साधक को देवता भी नमस्कार करते हैं ॥१८॥ सर्वार्थों अथवा सर्वथा विरत दमनशील साधक सर्वत्र संचरण करने (घूमने) वाली इन्द्रियों को रोककर समस्त दुःखों से मुक्तं और कर्मरज से रहित सिद्ध होता है ॥१६॥ जिस साधक ने सत्य का प्रकाश पा लिया है, और तत्त्व का रहस्य पा चुका है, ऐसा सम्यक्त्वशील साधक क्रोध पर विजय पा सकता है, ऐसे
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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