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________________ १४८ अमरदीप हैं, वे सुप्त हैं, इन्द्रियों के वश में हैं; वासना के गुलाम हैं । उनकी स्थिति उस सवार की-सी होती है, जिसके हाथ में लगाम नहीं है। उसके इशारों पर इन्द्रिय रूपी अश्व नहीं चलते, अपितु अश्वों के इशारों पर उसे चलना पड़ता है । इन्द्रियों के सकेतों पर चलने वाला सुप्त (प्रभादी) साधक उन स्रोतों को रोक नहीं सकता। जिसके हाथ में इन्द्रिय रूपी घोड़ों की लगाम है, वही अप्रमत्त- जागृत साधक है, जो उन स्रोतों को रोक देता है। वही साधक स्थितप्रज्ञ या स्थितात्मा है, जिसके इन्द्रियाँ वश में हैं । वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।' 'अपनी इन्द्रियां जिनके वश में हैं, उसकी प्रज्ञा स्थिर है ।' आगम में साधक के लिए ऐसा निर्देश है कि यदि उसकी इन्द्रियाँ प्रशस्त पथ की ओर हैं तो वह उन्हें चलने दे, किन्तु जब वे अप्रशस्त पथ में जाने लगें, तब उनकी गति को रोक दे । कछुआ क्या करता है ? जब तक वह पानी में अपने आपको सुरक्षित समझता है, तब तक आजादी से घूमता है; किन्तु जब उसे खतरे की आशंका होती है, तो उसी क्षण अंगों को समेट लेता है । 1 दक्षिण के महान सन्त तिरुवल्लुवर भी अपने त्रिकुरल में लिखते हैं कि " जो साधक अपनी इन्द्रियों को उसी तरह अपने भीतर खींचकर रखता है, जिस तरह कछुआ अपने हाथ-पाँव को खींचकर भीतर छिपा लेता है वह अपने समस्त आगामी जन्मों के लिए खजाना जमा कर रखता है ।" farai यह है कि अप्रमत्त साधक की पांचों इन्द्रियाँ सुप्त हैं, जबकि प्रमत्त साधक की पाँचों इन्द्रियां जागृत रहती हैं । सुप्त साधक पाँचों इन्द्रियों के द्वारा कर्मरज को ग्रहण करता है, जबकि जागृत साधक पाँचों इन्द्रियों के द्वारा कर्मराज को रोकता है । श्रोत्रेन्द्रिय-विजय का मार्गदर्शन पांचों इन्द्रियों के विभिन्न विषय को पाकर साधक कैसे जागृत रहे ? इसके लिए अर्हतषि वर्द्धमान साधक को सरल और स्वाभाविक उपाय बताते हुए कहते हैं सद्द सोसम्ममुवादाय मणुण्णं वा वि पावगं । मणमिण रज्जेज्जा, ण पदुसेज्जा हि पावए ॥ ३ ॥ ९. भगवद्गीता अ २ श्लोक २८ में भी कहा है यदा संहरते चाऽयं कूर्मोअंगनीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठता ॥
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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