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इन्द्रियनिग्रह का सरल मार्ग १४७
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(विषयासक्ति के स्थान ) हैं । ये स्रोत कर्मों के आश्रवद्वार कहे गये हैं, जिनसे समस्त प्राणियों को विषयासक्ति पैदा होती है । अतः सावधान होकर देखते रहो ।'
ये स्रोत कर्मों के आगमन (आस्रव) के द्वार हैं, जो तीनों दिशाओं या लोकों में हैं । ऊर्ध्वस्रोत हैं- वैमानिक देवांगनाओं या देवलोक के विषय सुखों की आसक्ति । अधोदिशा में स्रोत हैं- भवनपति देवों के विषय-सुखों में आसक्ति और तिर्यक्लोक में स्रोत हैं - व्यन्तरदेव, मनुष्य और तिर्यञ्च - सम्बन्धी विषय- सुखासक्ति । इन तीनों मुख्य स्रोतों से साधक को सदा सावधान रहना चाहिए। मन की गहराई में उतरकर उन्हें देखते रहना चाहिए। इन स्रोतों को बन्द कर देने पर ही कर्मबन्धन बन्द होगा ।
प्रस्तुत उन्तीसवें अध्ययन में वर्द्धमान अर्हतर्षि ने इसी प्रश्न को उठा कर उसका सम्यक् समाधान किया है।
सवन्ति सव्वतो सोता, किं ण सोतो-निवारण ? पुट्ठे मुणी आइक्खे कहं सोतो पिहिज्जति ? ॥ १ ॥
अर्थात् - सभी ओर से स्रोत बह रहे हैं। क्या उस स्रोत का निरोध नहीं हो सकता ? इस प्रकार पूछे जाने पर मुनि ( वर्द्धमान अर्हतर्षि) ने बताया कि किस प्रकार स्रोत का निरोध हो सकता है ?
वस्तुतः जब तक आत्मा संसार स्थिति में है, तब तक विषय-वासना (आसक्ति) उसके साथ है और वही वासना कर्म स्रोत को चालू रखती है । वह स्रोत प्रत्येक स्रोत इन्द्रिय के साथ क्या किस प्रकार का और कैसे लग जाता है, उस स्रोत को बन्द करने या रोकने का उपाय क्या है ? इस सम्बन्ध में वर्द्धमान अर्हतषि कहते हैं।
वद्धमाणेण अरहता इसिणा बुइयं
पंच जागरओ सुत्ता, पंच सत्तस्स जागरा । पंचहि रयमादियति पंचहि च रयं ठए ॥ २॥
अर्थात् - जिनकी पाँचों इन्द्रियाँ जाग्रत हैं, वे सुप्त हैं, और जिनकी पाँचों इन्द्रियाँ सुप्त हैं, वे जाग्रत हैं । पाँचों इन्द्रियों के द्वारा ही प्रमादी आत्मा कर्मरज को ग्रहण करता है और अप्रमत्तमुनि उनके द्वारा कर्मरज को आने से रोकता है, यों अर्हतषि वर्द्धमान बोले ।
वास्तव में, पांचों इन्द्रियाँ ही वे स्रोत हैं, जिनसे कर्मरज का आगमन ( ग्रहण आस्रव) आत्मा में होता है । जिन प्रमत्त साधकों की इन्द्रियाँ जाग्रत