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________________ १४६ अमरदीप साधना के क्षेत्र में इन्द्रियाँ घोड़े हैं, शरीर रथ है, आत्मा सारथि है, मन उसका सहायक है । कहा भी है इन्द्रियों के न घोड़े विषय में अडें । जो अड़ें भी तो संयम के कोड़े पड़े ॥ तन के रथ को सुपथ पर चलाते चलें । सिद्ध अर्हन्त में मन को लगाते चलें! अगर सारथि कुशल अश्वसंचालक है, अश्व की लगाम अपने हाथ में रखता है और सदैव जागरूक रहता है तो कोई कारण नहीं कि अश्व विपथगामी बने । वास्तव में आत्मा का मन्त्री सहायक) मन है । वह जिस ओर की प्रेरणा इन्द्रियों को देता है, इन्द्रियाँ उसी ओर दौड़ जायगी। अतः . आत्मारूपी सारथि स्वयं सुशिक्षित और जागरूक हो, मनरूपी सहायक मन्त्री भी संयमित हो तो वह इन्द्रियों पर शासन कर सकता है, उत्पथगामी होने से रोक सकता है। परन्तु एक बात अवश्य ही विचारणीय है । वह यह है कि छहों दिशाओं से इन्द्रिय-विषय-वासनाओं के स्रोत उमड़-घुमड़ कर आ रहे हैं। साधक जिस दिशा में देखता-सुनता, सूघता, चखता और स्पर्श करता है, उस दिशा में विषयासक्ति के स्रोत हैं। ये स्रोत जब तक बंद न कर दिये जाएँ, या सुखा न दिये जाएँ, तब तक आत्मा इन्द्रिय-विषयों की आसक्ति में फंसती रहेगी और कर्मों का आगमन (आश्रव) होता रहेगा। उत्तराध्ययन सूत्र (३०।५) में कहा गया है जहा महातलायस्स सन्निरुद्ध जलागमे । उस्सिचणाए तवणाए कमेणं सोसणा भवे ॥ किसी बड़े तालाब को सुखाना हो तो सर्वप्रथम उसमें जल के आगमन-द्वार को रोकना होगा, तथा तालाब के अन्दर रही हुई जलराशि को उलीच कर बाहर निकालना होगा। इसी प्रकार किसी साधक को मन के तालाब को सुखाना है, और उसे विषयासक्ति, वासना या आस्रवों के स्रोत से मुक्त करना है, तो सर्वप्रथम इन आस्रवों या विषयासक्ति के आगमन द्वारों को रोकना होगा। तपस्या से कर्मों को उलीचकर उसे सुखाना होगा। ये ही वे स्रोत हैं जो आत्मा में कर्मों के आस्रवद्वार हैं। जैसे कि आचारांगसूत्र (१ श्रु. ५ अ. ६ उ. सू. १२) में कहा गया है उड्ढे सोता अहे सोता तिरियं सोता वियाहिता। एते सोया वियक्खाता, जेहिं संगति पासहा ॥ अर्थात्- 'ऊपर (आसक्ति के) स्रोत हैं, नीचे स्रोत हैं, मध्य में स्रोत
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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