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इन्द्रिय-निग्रह का सरल मार्ग १४ मणुण्णम्मि अरज्जते, अदुठे इयरम्मि य ।
असुत्ते अविरोधीणं एवं सोए पिहिज्जति ॥४॥ अर्थात् - श्रोत्र के द्वारा मनोज्ञ शब्द को पाकर साधक राग न करे, तथा अमनोज्ञ शब्द को पाकर द्वेष न करे, समचित्त रहे। मनोज्ञ शब्दों में अनुराग और अमनोज्ञ में द्वष न करता हुआ साधक अविरोधी में जागृत रहकर कर्म-स्रोत को रोकता है।
(१) श्रोत्रेन्द्रिय का स्वभाव है-शब्द को ग्रहण करना । अच्छे या बुरे मधुर या कटु जो भी शब्द आते हैं, कान ग्रहण करेगा ही। साधक कान को बंद करके बैठ नहीं सकता, बैठना भी नहीं चाहिए। उसका कार्य इतना ही है वह जाग्रत रहे, मधुर शब्दों पर अनुरक्त न होकर अपने कर्तव्य को भूल न जाए। मधुरता के प्रवाह में बह न जाए। कटु शब्द कान में पड़ें, तब भी वह अपना विवेक न खोए, क्योंकि किसी भी मूल्यवान् वस्तु को खोकर भी मनुष्य इतना नहीं खोता, जितना कि वह अपना विवेक खोकर खोता है।
. अतः होना यह चाहिए कि श्रवणेन्द्रिय अपना काम करे किन्तु साधक उसके बहाव में आकर अपनी साधना न खोए ।
प्रश्न होता है कि श्रवणेन्द्रिय से क्या सुना जाए ? श्रवणेन्द्रिय से वे ही बातें सुनी जाएँ, जिनसे आत्मा का विकास हो, आत्मा त्याग वैराग्य और संयम के पथ पर आगे बढ़े। परमात्मा की प्रार्थना, भक्तिगीत, आगमों की वाणी, धर्मोपदेश अथवा गुरुदेव के द्वारा जो भी तप-संयम के विषय में मार्ग.दर्शन हो वह सुना जाए। किन्तु विकारवर्द्धक अश्लील बातें, सिनेमा के गाने आदि सुनने से मन विषयोन्मुख होता है और उससे अशुभकर्मों का बन्धन होता है।
चक्षु रिन्द्रिय-विजय का मार्गदर्शन (२) दूसरी इन्द्रिय आँख के रूप में आपको प्राप्त है। आँख के द्वारा सब प्रकार के अच्छे-बुरे दृश्य, रूप दिखाई देंगे, उस समय साधक क्या करे ? इसके लिए अर्हतर्षि मार्गदर्शन दे रहे हैं
रूवं चक्खुमुवादाय मणु ण्ण वा वि पावगं । मणण्णामि न रज्जेज्जा, ण पदुसेज्जा हि पावए ॥५॥ मणुग्णम्मि अरज्जते अदुठे इयरम्मि य । असुत्ते अविरोधीणं एवं सोए पिहिज्जति ॥६॥