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________________ १४४ अमरदीप . अहर्निश डूबे हुए व्यक्ति को कभी ऊँचा नहीं मानते, श्रेष्ठ नहीं कहते, व कामभोगों के स्वेच्छा से त्यागी को महान और ऊँचा मानते हैं। चक्रवर्ती भी अनाज की रोटियाँ खाता है, और त्यागी भी। क्या चक्रवर्ती सोने या मोती की रोटियाँ खाकर अपना पेट भरता है ? अतः बाह्य धन, वैभव या भोगों के आधार पर उच्चता-नीचता की कल्पना करना ही गलत है । यदि कामत्यागी महान और श्रेष्ठ न होता तो चक्रवर्ती या देवेन्द्र आदि उसके चरणों में क्यों झुकते ? अतः कामत्यागी या कामविजयी साधक ही विश्ववन्ध और पूज्य है। . अब अर्हतर्षि उन कामविजेता महान् आत्माओं को धन्यवाद देते हुए कहते हैं कामगहविणिमुक्का, धण्णा धीरा जितिदिया। वितरंति मेइणि रम्मं, सुद्धप्पा सद्धवादिणो ॥१८॥ अर्थात्-वे कामरूपी ग्रह से विनिमुक्त और जितेन्द्रिय आत्माएँ धन्य हैं। उनकी आत्मा समस्त विकारों से मुक्त शुद्ध होती है। वे शुद्धवाद की प्ररूपणा करते हैं । अतः ऐसी शुद्ध आत्माएँ इस रम्य लगने वाली पृथ्वी (पार्थिव जगत) को पार कर जाते हैं। वे शुद्ध अध्यात्म गगन में ही उड़ते हैं, कामादि विकारों की मन से भी इच्छा नहीं करते, उनका सेवन करना तो दूर रहा। कामवासना की लहरे जिस आत्मा को छू नहीं सकती, वह आत्मा सच्चे माने में धन्य है। वही शुद्धात्मा इस सौन्दर्यमय मोहमयी दुनिया को पार कर जाती है । सौन्दर्यपूर्ण यह दुनिया मानव के लिए सबसे बड़ा बन्धन है, इस परोषह को जीतना सबसे अधिक दुर्गम है। जिसने कामवासना को तोड़ फेंका, उसके लिए दूसरे बन्धनों को तोड़ना कच्चे धागे के समान है । भगवान् महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र (अ. ३२/१८ गा.) में इसी तथ्य को अभिव्यक्त किया है एए य संगे समइक्कमित्ता, सदुत्तरा चेव भवंति सेसा । जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गगा समाणा ॥ जिसने काम-राग पर विजय पा लिया है, उसके लिए दूसरे परीषहों पर विजय पाना ऐसा ही है, जैसा कि महासागर तैर कर आने वाले के गंगा नदी को पार करना। बन्धुओ! कामविजय कर लेने से समस्त विकारों पर विजय प्राप्त कर लेना आसान हो जाता है। आप भी काम पर विजय पाने का पुरुषार्थ कीजिए, वही सच्चा और सफल पुरुषार्थ होगा। pu
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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