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अमरदीप
जीव समय आने पर किसी दूसरे की बहन, बेटी या पत्नी आ अपहरण करने में भी संकोच नहीं करता। यह एक प्रकार की चोरी ही है। उज्जयिनी नृप चण्डप्रद्योत उदायन राजा की दासी स्वर्णगुटिका को चोरी से अपने साथ भगा ले गया था । कामी व्यक्ति अपनी सम्पत्ति, ज्ञान, विज्ञान सब कुछ कामाग्नि में होम देता है । इसके लिए हमारे सामने ज्वलन्त उदाहरण रावण का है । कामवासना की आँधी ने उसके ज्ञान-विज्ञान के दीप को बुझा दिया, फलतः उसकी सोने की लंका उसकी आँखों के सामने ही भस्म हो गई ।
कामविकार आत्मकृत है, स्वाभाविक नहीं
कई लोग, खासकर कामविज्ञान के पाश्चात्य विद्वान् कहते हैं कि कामविकार मनुष्य के लिये अपराध नहीं, भूख प्यास आदि हाजतों की तरह् काम-वृत्ति प्रवृत्ति स्वाभाविक हाजत है । उसकी तृप्ति की प्रक्रिया में कोई रोक नहीं लगाई जानी चाहिए।
जहाँ तक भारतीय अध्यात्मविज्ञान का प्रश्न है, उसके विज्ञों ने काम को मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं, विकृति मानी है । अगर स्वाभाविक प्रवृत्ति होती तो एक नन्हें बालक में भी होती। काम मानव-जीवन का दुर्बल पक्ष है, बहुत नाजुक भी है। यह आत्मकृत अपराध है । इसी तथ्य अनावृत करते हुए अर्हतर्षि कहते हैं
अप्पक्कत्तावराहोऽयं, जीवाणं भवसागरो । सेओ जरग्गवाणं, वा अवसामि दुत्तरो ॥ १२ ॥ अपक्कताऽवहिं जीवा पावंति वेदणं । अप्पक्कत्तेहि सल्लाह, सल्लकारी व वेदणं ॥ १३॥ जीवो अप्पोबंधाताय, पडते मोह-मोहितो । बद्ध - मोग्गर- मालो वा गच्चंतो बहुवारियो ॥ १४ ॥ जहा निस्साविण नाव, जाति-अन्धो दुरूहिया । इच्छते पारमागंतु, अन्तरे च्चिय सीदति ॥ २०॥
अर्थात् - जीवों के लिए यह काम सेवन आत्मकृत अपराध है, अथवा अप्राकृत अपराध है । इससे भवसागर का अन्त (पार) करना उसी तरह दुस्तर हो जाता है, जिस तरह वृद्ध बैल के लिए जीवन के अन्तिम वय में यात्रा करना ॥ १२ ॥
जीवात्मा अपने किये हुए ( आत्मकृत) या अप्राकृतिक अपराधों के कारण घोर वेदना पाते हैं । आत्मकृत शल्यों के द्वारा ही शल्यकारी वेदना पाता है ॥१३॥
मोह-मोहित आत्मा अपने ही उपघात के लिए पतित होता है । वह