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________________ कामविजय : क्यों और कैसे ? १३६ मानी बन्धरूपं मुद्गर को पकड़ कर प्रायः विश्व के रंगमंच पर बहुत बार नृत्य करता है ||१४|| जिस प्रकार निस्राविणी अर्थात् छिद्ररहित नौका भी हो, परन्तु उस पर जन्मान्ध कर्णधार बैठा हो और उस पार जाना चाहता हो, परन्तु अन्धत्व के कारण वह बीच में ही संकटग्रस्त हो जाता है । ( उसी प्रकार कामान्ध व्यक्ति संयम की छिद्ररहित नौका पाकर भी उस पार जाना चाहे तो नहीं जा सकता, वह बीच में ही संकटग्रस्त हो जाता है | ) || २० ॥ कामोन्मत्त मनुष्य काम विकार को स्वकृत अपराध न मानकर निमित्त पर उसका दायित्व डाल देता है, अथवा उसे भगवान् की देन समझता है, फिर वह स्वच्छन्द होकर इस अपराध को बार-बार करता जाता है, और उसे प्राकृतिक (स्वाभाविक ) प्रवृत्ति मानता है । इस अज्ञानता का परिणाम यह आता है, प्रारम्भ में तो कदाचित् मानव उस (काम) के पीछे दौड़ लगा लेता है जैसे बूढ़ा बैल प्रारम्भ में ठीक चलता है, परन्तु उसकी बूढ़ी टांग थक जाती है, इसी प्रकार काम विकार रूप अपराध जीवन की सन्ध्या में विघातक बन जाता है । तथा इससे जीवों को जीवन की सन्ध्या में संसार - समुद्र पार करना अत्यन्त कठिन हो जाता है । इसलिए सभी साधकों को कामविकार को अप्राकृतिक या आत्मकृत अपराध मानना चाहिए । परन्तु अज्ञानी मानव काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि आत्मकृत अपराध हैं । दूसरा कोई इन अपराधों को कराता नहीं, न ही प्रेरणा देता है । और इन्हीं अपने किये हुए पापों के फलस्वरूप मनुष्य अनन्तकाल तक वेदना भोगता है । उस समय नरक में परमाधार्मिक असुर उसे याद दिलाते हैं कि तूने हंस - हँसकर काम आदि अमुक अपराध किये थे, उनका फल चख ले । प्रायः इस सिद्धान्त को नहीं समझता कि मैं अपनी ही गलतियों के कारण दुःख पा रहा हूँ । सुख और दुःख का कर्ता और भोक्ता मैं ही हूं । परन्तु ज्ञानचेतना के अभाव में मनुष्य अपने सुख दुःखों की जड़ दूसरे में खोजता है । और उस निमित्त को दुःख का हेतु मानकर उसे नष्ट कर देना, तथा समर्थ शक्तिविशेष को सुखप्रदाता मानकर उससे याचना करना चाहता है । इस प्रकार दु:ख के लिए वह दूसरों पर रोष-दोष का आरोपण करता है और सुख ' के लिए वह दूसरों से भीख मांगता है । परन्तु आज से ढाई हजार वर्ष पहले भगवान महावीर ने अपने अन्तिम प्रवचन उत्तराध्ययन सूत्र में इस शाश्वत सिद्धान्त को रखा था - अप्पा कत्ता विकत्ताय दुहाण य सुहाण य । आत्मा ही दुःखों और सुखों का कर्ता है और वही भोक्ता है । है.
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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