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१२६ अमरदीप
जो भिक्षु मित्रता के बन्धन में आकर दूसरे के कानों को सुखकर शब्द कहता है। और वह गृहस्थ भी प्रिय भाषा (साधु की चिकनी चपड़ी बातों) में मुग्ध हो जाता है । इस प्रकार दोनों ही (साधु और गृहस्थ) आत्माथिता को खो बैठते हैं।
गृहस्थ के साथ जब अतिपरिचय या घनिष्ठ संसर्ग हो जाता है, तब आगे चलकर वह परिचय या संसर्ग स्वार्थी मैत्री में परिणत हो जाता है। इस प्रकार मैत्री के पाश में बंधकर साधु गृहस्थ को ठकुरसुहाती चिकनीचूपड़ी बातें कहता है। फिर उसमें नग्नसत्य कहने का साहस नहीं रहता। वह गृहस्थ भी प्रियभाषी साधु की मीठी-मीठी बातों में आकर मुग्ध हो जाता है। गृहस्थ को उसके मतलब की बातें सुनने को मिलती हैं तो वह स्वार्थ सिद्धि के लिये मुनि की आत्म-साधना को दूषित कर देगा। उसको सदोष आहारादि देगा, या सुख-सुविधाओं से उसको खुश कर देगा। किन्तु यह रागात्मक अन्ध श्रद्धा एव अन्ध भक्ति साधु और गृहस्थ दोनों के आत्महित को ठेस पहुंचाती है।
वास्तव में मोहपाश में बंधे हुए साधक में नग्नसत्य कहने का साहस नहीं होता। वह सोचता है कि अगर खरी-खरी बात कह दी तो इसकी श्रद्धा-भक्ति मेरे पर से हट जायेगी। फिर यह मेरे पास भी नहीं फटकेगा अथवा दूसरे किसी का भक्त बन जायेगा। जिसमें नग्नसत्य कहने की हिम्मत नहीं होती, वह चापलूस बन जाता है, ठकुरसुहाती कहने लगता है । एक कवि ने ठीक ही कहा है
सचिव वैद्य गुरु तीन जो, प्रिय बोलहिं भय आस ।
राज, धर्म, तन तीन कर, वेग होहिहिं नास ।।
मन्त्री, वंद्य और धर्मगुरु, ये तीन अगर किसी के भयवश प्रिय बोलते हैं, सच्ची बात नहीं कहते हैं तो क्रमशः तीन बातों का नाश हो जाता है । अर्थात् मन्त्री प्रिय बोलकर राज्य का, धर्म-गुरु प्रिय बोलकर भक्त के धर्म का और वैद्य प्रिय बोलकर रोगी के तन का नाश कर बैठते हैं।
पाश्चात्य विचारक डेल कारनेगी कहता है
Flattery is counterfeit and like counterfeit inoney it will eventually get you into trouble if you try to pass it.
'चापलूसी एक नकली सिक्का है, और नकली सिक्के की भाँति अन्त में आपको संकट में डाल देगा, यदि आप इसको चलाने का प्रयत्न करेंगे।'