SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निःसंगता की साधना के सूत्र १२५ से ही आत्मा या परमात्मा के दर्शन हो जायेंगे । जो आत्मा एकान्त रूप में यह समझते हैं कि शहर या नगर को छोड़-छाड़कर एकान्त जंगल में जाने से अपनी आत्मा में एकाग्रता आ जायेगी, वे भी बहिरात्मा हैं, उनकी दृष्टि बाह्य सयोग-वियोगों में ही अटकी हुई है, वे अनात्मदर्शी हैं । समाधिशतक के ७३ वें श्लोक में कहा गया है ग्रामोऽरण्यमिति द्वेधा, निवासोऽनात्मदर्शनाम् । दृष्टात्मनां निवासस्तु विविक्तात्मैव निश्चलः ।। अनात्मदर्शी यह ग्राम है, यह जंगल है, यों दो प्रकार के निवास स्थान की कल्पना करते हैं । जो आत्मदर्शी अन्तरात्मा हैं आत्मस्वरूप का जिन्होंने अनुभव किया है, वे तो पर से भिन्न रागादिरहित शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा ही अपना विविक्त निश्चल निवासस्थान मानते हैं । वे बाह्य संसर्ग छोड़ कर आत्मस्वरूप में ही निवास करते हैं । उसी में एकाग्र होकर रहते हैं । बाह्य गुफा में तो सिंह एवं सर्प आदि रहते हैं, परन्तु अन्तर् की, चैतन्य की गिरिं गुफा में गहरे उतर कर ध्यान करने से आनन्द और शान्ति का अनुभव होता है । जो लोक-संसर्ग को छोड़कर जंगल में अपनी पुरानी वृत्ति लेकर जाते हैं, वे बाह्यष्टि हैं । वहाँ भी उनका राग जाता नहीं । केवल क्षेत्र बदल जाता है । भागवत में जड़ भरत की कथा आती है । वे नदी के तट पर एकान्त में एक झोंपड़ी में निवास करने लगे । परन्तु वहाँ भी एक मृग शिशु पर उनका राग बढ़ गया । वे रात दिन उसी को पपोलने, उसकी चेष्टाएँ देख कर खुश होने और उसी के साथ क्रोड़ा करने में रत रहने लगे । उनकी आत्म साधना छूट गई। वे राग भाव में डूब गये । वास्तव में स्थान बदलने से स्नेहराग नहीं चला जाता, इसके लिये आत्मध्यान आवश्यक है । तथा उसकी दृष्टि, चित्तवृत्ति, और बुद्धि एकमात्र लक्ष्य - मोक्ष में स्थिर होना भी चाहिये । अतिपरिचय से होने वाले दुष्परिणाम अतिपरिचय मे सम्भावित दोषों का निरूपण करते हुए अर्हतषि कहते हैं जे भिक्खु सखयमागते, वयणं कण्णसुहं परस्स बूया । सेsपि भासा हु मुद्ध े आतट्ठे नियमा तु हायती || ३ ||
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy