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________________ नि:संगता की साधना के सूत्र १२७ भगवान् महावीर ने अपने साधक शिष्यों से आचारांग सूत्र में स्पष्ट कहा था जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थई । जहा तुच्छस्स कत्थई, तहा पुण्णस्स कत्थइ ।। 'हे साधक ! तुम्हारे भीतर सात्त्विक तेज प्रकट होना चाहिए कि तुम्हारे समक्ष दर-दर भटकने वाला भिखारी या दीन-हीन व्यक्ति आए, अथवा सम्राट् या धनाढ्य ही क्यों न आए, तुम्हें बिलकुल हिचकिचाए बिना सत्य प्रकट कर देना चाहिए। सत्य प्रकट करते समय तुम्हारे मन का एक अणु भी नहीं कांपना चाहिए। ' वस्तुतः सत्य कहने के लिए निर्भयता और साहस अपेक्षित है, क्योंकि हर कान इतना मजबूत नहीं होता; जो सत्य सुन सके। परन्तु सच्चा निरासक्त, निर्मोही, निःस्पृह साधक किसी भी कष्ट की परवाह नहीं करता, वह सच्ची बात कहने से नहीं हिचकिचाता । मोहविजेता श्रमण-शिरोमणि भगवान महावीर भी प्रखर सत्यवक्ता थे। एक बार भगवान् महावीर से धर्मसभा में मगध सम्राट् कोणिक ने पूछा - _ 'भगवन् ! मैं मर कर कहाँ जाऊँगा?' भगवान् बोले-'यह तो तुम मुझसे न पूछ कर, अपने आप से ही पूछ लो। जैसी तुम्हारी करनी है, उसी के अनुसार तुम्हारी गति होगी।' कोणिक ने कहा-'भगवन् ! मैं आपके श्रीमुख से सुनना चाहता हूं।' भगवान् ने कहा- 'अपने प्रबल क र कर्मों के कारण तुम मर कर छठी नरक में जाओगे। इसमें बुरा मत मानना। जैसी करणी वैसी भरणी।' ___ कोणिक ने उदास होकर पूछा-'भगवन् ! मैं आपका भक्त और छठी नरक में ?' . . भगवान् महावीर ने कहा- 'मुझसे तुमने पूछा है तो मैं सत्य-सत्य ही कहूंगा।' भगवान् महावीर को मानसिक दुर्बलता के ये विचार सत्य कहने से नहीं रोक सके कि 'यह मेरा भक्त है, मगध सम्राट् है, यदि यह रूठ गया तो?' अतः अतिपरिचय से सावधान साधक गृहस्थी की चापलूसी न करे । उसकी यही कामना रहे-न तो मैं किसी की सस्ती प्रशंसा करूं और न
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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