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________________ १२० अमरदीप देते हुए उसकी आधारभूमि साधु की चारित्र सम्पदा के विषय में कहते हैं साधु सुचरितं अव्वाहता समणसपया वारत्तएण अरहता इसिणा बुइत ॥ अर्थात - श्रमणों की सच्ची सम्पत्ति उसका सुचारित्र है । जो साधक उस सम्पत्ति से युक्त है, उसकी गति अव्याबाध रहती है । इस प्रकार वार तंक (वारत्रयक) अर्हतर्षि ने कहा । साधु वर्ग की समस्त साधना का मूल उसका चारित्र है । यदि साधु चारित्रवान् है तो सर्वत्र अबाध गति से उसका प्रवेश हो सकता है । क्योंकि चारित्र ही उसकी मूल पूँजी है । चारित्र की शक्ति साधक जीवन में सर्वोच्च शक्ति है । जिसके पास यह शक्ति है, वह साधक कहीं भी बेधड़क जा सकता है, कोई शस्त्र, अस्त्र, बम, भय, प्रलोभन, सत्ताधीश, धनाढ्य या दुनिया की कोई भी शक्ति उसे झुका नहीं सकती। किसी भी प्रतिबन्ध में वह रह नहीं सकता। दुनिया की समस्त शक्तियों पर चारित्र शक्ति विजय पाती है । उसकी तुलना ससार की कोई भी शक्ति नहीं कर सकती । चारित्र - सम्पत्ति की रक्षा : कैसे और कैसे नहीं ? I साधु की चारित्र - सम्पत्ति की सुरक्षा तभी हो सकती है, जब श्रमणों के विशेषत: गीतार्थ, स्थविर, गुरु या आचार्य के सान्निध्य में रहे, ग्रहण और आसेवन दोनों प्रकार की शिक्षा गुरु (आचार्य) कुल के सन्निकट रहकर प्राप्त करे । इसके विपरीत यदि वह गृहस्थ से अधिक सम्पर्क, संसर्ग या परिचय में रहता है तो उसकी चारित्र सम्पत्ति क्षीण होती जाती है। उसके पंचमहाव्रत रूप चारित्र बल में दरारें पड़ने लगती हैं। इसीलिए अर्हतर्षि वारत्तक चारित्रसम्पत्ति के अपहरण करने वाले गृहस्थ सहवास के लिए साधक को सावधान करते हुए कहते हैं न चिरं जणे संवसे मुणी, संवासेण सिणेहु वद्धती । भिक्खुस्स अणिच्चचारिणो अत्तट्ठे कम्मा दुहायती ॥ १ ॥ अर्थात् — मुनि गृहस्थजनों के बीच अधिक समय तक न रहे। गृहस्थों के साथ संवास से स्नेहराग बढ़ता है, जो कि अनित्य ( अनियत ) चारी भिक्षु के आत्मा के लिए कर्म ( बन्धन) का रूप लेकर ( भविष्य में ) दुःख की सृष्टि करता है ।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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