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________________ निःसंगता की साधना के सूत्र धर्मप्रेमी श्रोताजनो ! आज मैं साधक जीवन की साधना में अत्यन्त बाधक तत्व जन-संसर्ग के विषय में प्रकाश डालूगा। आप मेरी बात को ध्यान से सुनेंगे तो आपके लिए भी वह अत्यन्त उपयोगी होगी। साधक जबसे साधु बनता है, तभी से अपने घर-बार, कुटुम्ब, स्त्री-पुत्र, सगे-सम्बन्धी तथा मित्रों और स्नेहीजनों का संग सर्वथा छोड़ देता है। परन्तु 'अप्पाणं वोसिरामि' कहने से वाणी से तो वह सांसारिकजनों का संसर्ग या संग छोड़ देता है, मगर मन से छोड़ता है या नहीं ? मन के किसी कोने में भी अपने पुत्र, भाई-बहन या परिवार के प्रति उसका स्नेहराग है, आसक्ति है, तो वह संगत्याग वाणी से हुआ है. मन से नहीं। और जब तक मन से संगत्याग नहीं होता, तब तक वह औपचारिक त्याग है, अन्तर् से त्याग नहीं है। और जब तक अन्तःकरण से संगत्याग नहीं होता, निःसंगता नहीं आती। और · जब तक निःसंगता नहीं आती साधक के अपनी साधना भ्रष्ट होने का भय है, अनेक दोष भी पैदा हो सकते हैं । एक विचारक ने कहा है निःसंगता मुक्तिपदं यतीनां, संगादशेषाः प्रभवन्ति दोषाः। आरूढयोगोऽपि निपात्यतेऽधः, संगेन योगी किमुताल्पसिद्धिः ।। - साधकों के लिए निःसंगता ही मुक्ति-पथ है; क्योंकि संग से समस्त दोष पैदा हो सकते हैं । बड़े-बड़े अध्यात्मयोगी भी संग के कारण पतन के गर्त में गिर गए हैं, फिर अल्पसिद्धि वाले साधारण साधक की तो बात ही क्या ? वस्तुतः निःसंगता ही साधु-जीवन की उन्नति का मूलद्वार है। निःसंगता की आधारभूमि : चारित्र सम्पत्ति प्रस्तुत सत्ताइसवें अध्ययन में वारत्तक अर्हतर्षि निःसंगता पर जोर
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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