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________________ ११४ अमरदीप शील के अठारह हजार अंगों में जिसने अपने मन को नियुक्त कर रखा है, वह शीलद्रष्टा ही ब्राह्मण है' ॥६॥ 'जिसके मन में षटजीवनिकाय का हित बसा हुआ है, समस्त प्राणियों के प्रति जो दयापरायण है और जिसकी आत्मा विशुद्ध है, उसे ही ब्राह्मण कहना चाहिए' ॥७॥ ब्राह्मण (माहन) के ये लक्षण उत्तराध्ययन सूत्र (२५वें अध्ययन की १६ से २६ तक की गाथाओं) में बताये हुए लक्षण से मिलते-जुलते हैं। निष्कर्ष यह है कि ब्राह्मण अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह में दृढ़ रहता है। जिसमें क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य, ये उत्तम धर्म के दस अंग हैं, जो ध्यान और अध्ययन में रत रहता है, जितेन्द्रिय, सत्यद्रष्टा एवं शीलद्रष्टा है, प्राणिमात्र के प्रति जिसके मन में कल्याण कामना है, जो जीवदया-परायण है और जिसकी आत्मा विशुद्ध है, वही ब्राह्मण है। गुणों की दृष्टि से ब्राह्मण और श्रमण __ जैनदर्शन गुणों का पूजारी है। वह श्रमण और ब्राह्मण दोनों को गुणों से पूजता है । वह व्यक्तिपूजक नहीं है, न ही वह वेष और क्रियाकाण्ड से या आडम्बर एवं प्रदर्शन से ब्राह्मण या श्रमण को मानता है। किसी ब्राह्मण के घर में जन्म लेने मात्र से जैनदर्शन उसे ब्राह्मण नहीं कहता। उत्तराध्ययन सूत्र (अ. २५ गा. ३२) में स्पष्ट कहा है न वि मुण्डिएण समणो, न ओंकारेण बँभणो । ___न मुणी रण्णवासेण, कुसचीरेण न तावसो । 'केवल सिर मुडा लेने से ही कोई श्रमण नहीं हो जाता. तथा ओंकार का रटन करने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता । अरण्यवास से ही कोई मुनि नहीं कहला सकता तथा कुश एवं वल्कल वस्त्र से ही कोई 'तापस' नहीं कहला सकता। तात्पर्य यह है कि श्रमण हो या ब्राह्मण, मुनि हो या तापस, उनकी अपनी-अपनी मर्यादानुरूप क्रिया एवं गुणों तथा नैतिक कर्तव्यों के अनुरूप अन्तःसाधना होनी चाहिए। इन चारों में क्रमशः समत्व, ब्रह्मचर्य, ज्ञान, एवं तप तो होना ही चाहिए, जो साधना का अन्तःप्राण है। जैनदर्शन ने न तो श्रमण संस्कृति का विरोध किया है और न ही
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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