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________________ स्वधर्म और परधर्म का दायरा ११५ ब्राह्मण संस्कृति का; किन्तु स्थानांग, भगवती एवं सुख विपाक आदि आगमों में यत्र-तत्र गौरव के साथ उनका उल्लेख - 'तहारूवं समणं वा माहणं वा' इत्यादि रूप में किया है । हाँ, ब्राह्मणत्व की ओट में पनपने वाले जातिवाद, पंथवाद एवं एकाधिकारवाद का डटकर विरोध किया है और शुद्ध ब्राह्मणत्व की प्रतिष्ठा की है। जैन दृष्टि से श्रमण और ब्राह्मण सद्ज्ञान और सआचार के प्रतिनिधि हैं । उनका जीवन त्यागमय और परोपकारपरायण बताया गया है। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र - ये तीन सत्कर्म और सामाजिक पुरुषार्थ तथा राष्ट्रीय परा. क्रम के प्रतीक हैं। ब्राह्मण की आध्यात्मिक कृषि इस अध्ययन के पाठ से स्पष्ट मालूम होता है, प्राचीन युग में ब्राह्मण खेती करता था । खेती करने में जो हिंसा होती है, उस ओर से आँख मूद लेने से जनता द्वारा मिलने वाली पूजा प्रतिष्ठा आदि के स्रोत सूखने लगे, तब सम्भव है विवश होकर उसने कृषि कर्म के साथ ऋषिकर्म अपनाया होगा। जो भी हो, जब ब्राह्मण संस्कृति के पुराने शुद्ध मूल्यों का ह्रास होने लगा, ब्राह्मणवर्ण को लोभ, मोह और अहंकार (जाति आदि मद) ने आ घेरा, तब अर्हषि मातंग ने ब्राह्मण वर्ग को भौतिक कृषि के बदले आध्यात्मिक कृषि (दिव्य खेती) की प्रेरणा दी है, जो इन गाथाओं से स्पष्ट हैदिव्वं सो किसि किसेज्जा, वप्पिज्जा, मातंगेण अरहता इसिणा बुइतं । ब्राह्मण दिव्य (श्रद्धा, ज्ञान, दया आदि की) खेती करे, पानी की क्यारी न बनावे अथवा उसे (पानी को) छोड़े नहीं। मातंग अर्हतर्षि इस प्रकार बोले--- आता छेत्त, तवो बीयं, संजमो जुअणंगलं । झाणं फालो निसत्तो य, संवरो य बीयं दढं ॥८॥ अकुडतं व कूडेसु, विणए णियमेण ठिते । तितिक्खा य हलीसा तु, दयागुत्तो य पागहा ॥६॥ समत्त गोच्छणवो, समिती उ समिला तहा । धिनिजोत सुमबद्धा, सवण्णुवयणे रया ।। १०।। पचेव इंद्रियाणि तु, खंता दंता य णिज्जित्ता । माहणेसु तु ते गोणा, गंभीर कसते किसि ।।११॥ तो बीयं अबझ से, अहिंसा णिहणं-परं । ववसातो धण तस्स, जुत्ता गोणा य संगहो ॥१२॥
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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