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________________ स्वधर्म और परधर्म का दायरा ११३ भारत के प्राचीन समाज की यह एक सुन्दर और स्वस्थ व्यवस्था थी। आज यह व्यवस्था टूट रही है, और इसके स्थान पर नई कोई योग्य परम्परा बन नहीं रही है। इस कारण समाज में बिखराव और संघर्ष पैदा हो रहा है। ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य को अपने अपने नैतिक कर्तव्यरूप धर्म को छोड़कर दूसरे के नैतिक कर्तव्य धर्म को अपनाने को अर्हतर्षि दो अन्धों की परस्पर टक्कर बतलाते हैं। विपरीत दिशा से आने वाले दो अन्धों में परस्पर टक्कर हो सकती है। तब वे राजमार्ग को ही युद्ध भूमि बना सकते हैं। किन्तु जिनकी दोनों आँखें खुली हों, वे परस्पर टकराते नहीं । अगर खुली आँखों वाले परस्पर टकराने लगें तो समझना चाहिए कि उनके अन्तश्चक्षु अभी खुलं नहीं हैं। उन्होंने शास्त्रों को केवल रटा है, जीवन में उतारा नहीं है। उनका तत्त्वज्ञान का दावा करना थोथा है, केवल तोतारटन है । सम्यग्दर्शनयुक्त ज्ञान हो तो वह इस प्रकार भटक ही नहीं एकता। ब्राह्मण (माहन) के लक्षण - अब जैनशास्त्रों में प्रचलित 'माहन', जिसको वैदिक ग्रन्थों में 'ब्राह्मण' कहा गया है, उसके लक्षण बतलाते हुए अहंतषि मातंग कहते हैं ण माहणे धणुरहे, सत्थपाणी ण माहणे । " माहणे मुसं बूया, चोज्ज कुज्जा ण माहणे ॥४॥ मेहुणं तु ण गच्छेज्जा, णेव गिप्हे परिग्गहं । धम्महिं णिजुत्तेहि, झाणज्झयण-परायणो ॥५॥ सविदिइएहि गुतहिं, सच्चपेही स माहणे । सीलंहि णिउत्तेहिं, सच्चप्पेही स माहणं ॥६॥ छज्जीवकाय हितए, सवसत्तदयावरे । स माहणेत्ति वत्तबे, आता जस्स विसुज्झती ॥७॥ अर्थात् - 'धनुष और रथ से युक्त ब्राह्मण (माहन) नहीं हो सकता। ब्राह्मण शस्त्रधारी भी नहीं हो सकता। ब्राह्मण न तो मृषावाद (असत्य) बोलता है और न ही चोरी करता है' ॥४॥ _ 'ब्राह्मण वह है, जो अब्रह्मचर्य का सेवन नहीं करता, तथा परिग्रह को भी ग्रहण नहीं करता वह धर्म के विविध अगों में नियुक्त होकर सदैव ध्यान और अध्ययन में परायण होता है' ॥५॥ 'जिसकी इन्द्रियाँ निग्रहीत हैं, और जो सत्यप्रेक्षी है, वही ब्राह्मण है।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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