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स्वधर्म और परधर्म का दायरा १०६ को विविध प्रकार से सेवा करता है । इस सेवा के बदले वह उचित पारिश्रमिक ले लेता है । एक भारतीय विद्वान् ने कहा है
ज्ञानदो ब्राह्मणः प्रोक्तः, त्राणदः क्षत्रियः स्मृतः । प्राणदो ह्यन्नदो वैश्यः, शूद्रः सर्वसहायकः ।। शिक्षको ब्राह्मण: प्रोक्तः, रक्षकः क्षत्रियः स्मृतः ।
पोषकः पालको वैश्यः धारकः शूद्र उच्यते ॥ 'ज्ञानदाता ब्राह्मण कहा गया, रक्षादाता को क्षत्रिय कहा, प्राणदाता और अन्नदाता को वैश्य तथा शूद्र को सर्वसहायक कहा गया। शिक्षक को ब्राह्मण, रक्षक को क्षत्रिय, पोषक और पालक को वैश्य और धारक को शूद्र कहा गया।
धर्म का जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होता है । जीवन की प्रत्येक क्रिया या प्रवृत्ति उस सर्वव्यापी धर्म से आलोकित रहनी चाहिए, तभी समाज में विचार और आचार शुद्ध रह सकते हैं। ____ अतः चारों वर्गों का धर्म, जो सारे समाज में लागू होता है, वह तो सबका एक समान है। उसके बिना चातुर्वर्ण्य समाज चल नहीं सकता। महाभारत में चारों वर्गों के धर्म का उल्लेख इस प्रकार किथा गया है
अहिंसा; सत्यमस्तेयमकाम-मक्रोध-लोभता।
भूत-प्रिय-हितेहा च धर्मोऽयं सार्ववणिकः ॥ अर्थात्-अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा काम, क्रोध और लोभ पर विजय, प्राणियों के प्रति शुद्ध प्रेम, उनके हित ही चेष्टा, यह सभी वर्गों का धर्म है ।
आशय यह है कि धर्म अपने आप में सर्वव्यापक होता है। चारों वर्गों का सर्वव्यापक धर्म ऐसा होना चाहिए, जो स्वस्थ एवं सशक्त समाज का निर्माण करे। चारों वर्गों में परस्पर मंत्री, बन्धुता और प्रेम हो । यही अहिंसा है। इससे चारों वर्णों वाले समाज में एक वर्ण की दूसरे वर्ण वाले के साथ टक्कर, संघर्ष या प्रतिस्पर्धा नहीं होगी। चारों ही वर्ण वाले समाज को धर्मनिष्ठ, स्वस्थ. उन्नत एवं सत्त्वशील बनाने का प्रयास करेंगे। समाज आन्तरिक सम्पदा से भी सम्पन्न होगा, उसका चरित्रबल ब गा।
सत्य का फलितार्थ यहाँ समाज में प्रामाणिकता और पवित्रता से है। चारों ही वर्ण वाले प्रामाणिकता रखेंगे तो समाज में एक-दूसरे के प्रति विश्वास का वातावरण तैयार होगा। पवित्रता से समाज तेजस्वी बनेगा।
अस्तेय का फलितार्थ है--समाज में एक-दूसरे के अधिकारों का हरण न होना, एक दूसरे का शोषण-उत्पीड़न, मिलावट, धोखेबाजी, बेईमानी,