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________________ २६ स्वधर्म और परधर्म का दायरा धर्मप्रेमी श्रोताजनो ! मनुष्य जब से जन्म लेता है, तब से मृत्यु-पर्यन्त श्वासोच्छवास की तरह. जो साथ ही रहता है, आस्तिक दर्शन उसे धर्म कहते है । दूध में घो, अरणि में अग्नि और चन्द्र में चांदनी आदि की तरह जो आत्मा में रहे, वह धर्म है । धर्म का लक्षण आचार्य कुन्दकुन्द ने किया है--"वत्थु-सहावो-धम्मो' - वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। यह तो हुआ निश्चयदृष्टि से आत्मधर्म का लक्षण । परन्तु व्यवहार में जब हम धर्म का आचरण करते हैं, उस समय धर्म की परिभाषा इस प्रकार होती है 'जो समाज का धारण पोषण और रक्षण करे, समाज को सुखमय बनाए, वह धर्म है।' धर्म न हो तो समाज की व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है । अराज. कता छा सकती है। एक ब्राह्मण है, उसका कार्य है-पठन-पाठन कराना, परन्तु शास्त्रजीवी ब्राह्मण यदि उस नीति का उल्लंघन करके शास्त्र के अर्थ का अनर्थ करने लगे, पशुबलि को धर्म बताने लगे, तो वह धर्म से च्युत होता है। एक क्षत्रिय है, उसका कार्य है-न्याय और सुरक्षा करना । वह शस्त्र. जीवी है । परन्तु अगर वह निर्बलों पर शस्त्र चलाने लगे, प्रजा पर अन्याय और अत्याचार करने लगे तो वह अपने धर्म से च्युत होता है । इसी प्रकार वैश्य का धर्म है --जो चीज यहाँ नहीं मिलती. उसे दूसरी जगह से लाकर जनता को मुहैया करना और बदले में अपना उचित पारिश्रमिक ले लेना। परन्तु वैश्य यदि महंगाई करके कीमत बढ़ाने लगे, जनता को लूटने और शोषण करने लगे तो वह अपने धर्म से भ्रष्ट होता है। इसी प्रकार शूद्र का कार्य है-सेवा करना । वह श्रमजीवी है, शिल्पी है। विविध शिल्प द्वारा वह जनता
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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