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________________ गर्भवास, कामवासना और आहार की समस्या १०५ वह बोला- "क्षमा करें। अयोध्या के सारे बाजार इस तेल के कटोरे में थे। मेरे सिर पर तो मौत मँडरा रही थी, फिर बाजारों की चहल-पहल देखने-सुनने की रुचि ही कैसे होती ? मेरे तो प्राण सूख गये थे।" चक्रवर्ती ने कहा- "अब तो तुम्हें अपने प्रश्न का समाधान मिल गया होगा" सुनार-"कैसा समाधान ? मुझे तो मौत ही मौत हरदम दिखाई देती थी।" " हँसते हुए चकवर्ती ने कहा- 'मैंने तो तुम्हें समाधान के लिए बुलाया था, मारने के लिए नहीं । प्रभु के द्वारा दिये गये समाधान के प्रति तुम्हें अविश्वास था, उसे ही मुझे दूरकरना था । अयोध्या के रागरंग तुम्हें लुभा न सके, क्योंकि मौत तुम्हारे सिर पर झम रही थी। ठीक इसी प्रकार छह खण्ड का विशाल साम्राज्य भी मुझे लुभा नहीं सकता। भले ही, मेरे चारों ओर भोग और विलास का वातावरण हो । मैं इससे निर्लेप रहता हूं।" . तेलपात्रधारक को अपने प्रश्न का समाधान मिल गया। तेलपात्रधारक की यह कहानी एक ओर अनासक्ति का सन्देश देती है तो दूसरी ओर यह प्रतिक्षण सावधानी एवं एकाग्रता का भी पाठ पढ़ाती है। साधक भी इस तेलपात्रधारक की भाँति प्रतिक्षण सावधान रहे तो कामवासना से अलिप्त रह सकता है। साथ ही अज्ञानी जीवों को मीठे लगने वाले इन कामभोगों में वह किम्पाकफल की छाया देखता रहे। इन दोनों उपायों से वह मन को साध सकेगा। तीन रूपकों द्वारा साधक के आहार ग्रहण करने का विधान मन के साथ तन की भी कुछ समस्या है । मन को जिस प्रकार मारना नहीं साधना है, उसी प्रकार तन को भी सदा के लिए भूखे-प्यासे रखकर मारना नहीं, उसे भी साधना है। साधक तन की रक्षा के लिए आहारादि विविध उपायों में होने वाले संभावित पाप-दोष से दूर रहे। साधक शरीर के लिए आहार भी ग्रहण करे और उसे उस में पापदोष भी न लगे; यह देखना है। साधक शरीर को पुष्ट करने और वृत्तियों को खुलकर खेलने देने के लिए आहार नहीं करता। किन्तु वह आहार इसलिए करता है कि शरीर से उसे काम लेना है; धर्मपालन करना है, आत्मधर्म का चिन्तन करना है, प्राण धारण करना है, गुरु आदि की सेवा भी करनी है । इसी दृष्टि से अर्हतर्षि कहते हैं
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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