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________________ १०४ अमरदीप नाम उसके आन्तरिक चक्षु के समक्ष रहेंगे तो वह अपने मन को साधने में सफल हो सकेगा । साधक गाफिल होकर कभी न रहे । उच्च से उच्च श्रेणी पर पहुंचकर भी प्रबल निमित्त मिलते ही गिर सकता है । जिस प्रकार एक मतवाला हाथी किसी विशाल वृक्ष को एक ही प्रहार में उखाड़ सकता है, उसी प्रकार काम भी वर्षों की साधना को नष्ट कर सकता है। इस ध्रुव सत्य को साधक अपनी आँखों के समक्ष रखे । दूसरा सक्रिय समाधान अर्हतर्षि ने तेलपात्र धारक के उदाहरण से दिया है । वह इस प्रकार है अयोध्या के उपवन में भगवान् आदिनाथने विशाल परिषद् के समक्ष देशना दी कि 'महारम्भी और महापरिग्रही मर कर नरक में जाता है ।' उस परिषद् में बैठे एक सुनार ने सहसा प्रश्न किया- 'प्रभो ! ये चक्रवर्ती मर कर कहाँ जायेगे ।' प्रभु ने कहा - 'यह अत्पारम्भी चक्रवर्ती इसी भव में सम्पूर्ण कर्मों का क्षयकर मोक्ष प्राप्त करेगा ।' उसने अविश्वास के स्वर में कहा - 'आपके पुत्र हैं, इसीलिए मोक्ष तो मिलेगा ही ।' चक्रवर्ती भरत ने ये अस्पष्ट शब्द सुने । सोचा - इसे प्रभु की बात पर विश्वास नहीं है, अत: इसे युक्ति समझाना चाहिए । अगले दिन भरत चक्रवर्ती ने अपना अनुचर उसे बुलाने के लिए भेजा । अनुचर ने कहा- चलो, मेरे साथ अभी का अभी, चक्रवर्ती ने बुलाया है । यह सुनते ही सुनार की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई। सोचा-पता नहीं चक्रवर्ती क्या दण्ड देंगे ? कल मैंने उनके सम्बन्ध में प्रश्न पूछकर बड़ी मूर्खता की । अनुचर ने उसे चक्रवर्ती के समक्ष उपस्थित किया । चक्रवर्ती ने कहा- 'लो, यह तेल का लबालब भरा कटोरा । इसे हाथ में लेकर अयोध्या के सभी बाजारों में घूम आओ। लेकिन, खबरदार ! एक बूँद भी नीचे नहीं गिरनी चाहिए, अन्यथा, ये दो अंगरक्षक तुम्हारी गर्दन उतार लेंगे ।' अंगरक्षकों को भरत चक्रवर्ती ने कुछ समझाकर उक्त सुनार के साथ कर दिया । आगेआगे तेल का कटोरा हाथ में लिये हुए वह सुनार चल रहा था और पीछेपीछे अंगरक्षक | सुनार ने सोचा- 'आज मौत सिर पर है । तेल का कटोरा लिए क्या चल रहा हूँ, मौत को लिए चल रहा हूँ ।' सुनारपूरी सावधानी के साथ अयोध्या बाजारों में घूमा और सन्ध्या समय जब सकुशल पहुंचा, तब जी में जी आया । उसने तेल का कटोरा नीचे रखकर संतोष की साँस ली। चक्रवर्ती ने पूछा'अच्छा, यह बताओ कि अयोध्या के बाजारों में तुमने क्या क्या देखा ?
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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