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________________ ६६ अमरदीप ___"--इसी प्रकार वे असंयत, अविरत, अप्रतिहत (पापकर्मों को न रोकने वाले), तथा पापकर्मों का प्रत्याख्यान न करने वाले, क्रियायुक्त होते हैं, असंवृत और एकान्तदण्डशील होते हैं, एकान्तबाल (अज्ञानी) होते हैं, वे विपुल पाप कर्म के कालुष्य को उपार्जित करके यहाँ से च्यव (मर) कर दुर्गतिगामी होते हैं। ये प्राणी आत्मा की शुद्ध परिणति के अपहारक अशुभवत्तियों से हारे हुए (पराजित) हैं। गर्भवास में पुनः पुनः आना अत्यन्त दःखरूप है. परन्तु जो लोग इसे नहीं जानते. अथवा इसके कारणों से विरत नहीं हो पाते, अथवा इसके कारणों को जानना ही नहीं चाहते, ऐसे घोर अज्ञानग्रस्त लोग बिलकुल असंयमी होते हैं, वे किसी भी इन्द्रिय और मन पर या विषयों पर संयम नहीं रख सकते, वे पापकर्मों से बिलकुल विरत नहीं होते, पापकर्मों को रोकने (संवर) का वे प्रयत्न ही नहीं करते, उन्हें त्यागते भी नहीं हैं। वे कायिकी, प्राषिकी, अधिकरणिकी, परितापनिकी एवं प्राणातिपातिकी आदि २५ क्रियाओं में रत हैं। असंवृत-संवर से रहित हैं, वे अहर्निश आत्मा को अपनी अशुभपरिणति से दण्डित करते रहते हैं, अर्थात्-दण्ड और अज्ञान में रचे-पचे रहते हैं। वे अपने प्रवर पापकर्मों के काले कारनामों के कारण दुर्गति के पथिक बनते हैं । यही उन आत्माओं की सबसे बड़ी हार है। वे मनुष्य-जीवन को इन पापकर्मों में डुबोकर बुरी तरह हार गये हैं। . . ऐसे लोग स्वयं तो पापकर्मों में डूबे रहते ही हैं, अन्य अनेक लोगों को भी पापकर्म की प्रेरणा देते रहते हैं। पापकर्मों का अनुमोदन और समर्थन भी करते रहते हैं । जो पापकर्म करते हैं, उनकी पीठ ठोकते हैं, उनकी प्रशंसा करते हैं, उन्हें प्रतिष्ठा देते हैं, उनको पापकर्मों के लिए बधाई, पुर. स्कार एवं अभिनन्दन भी देते हैं । इस प्रकार के उद्गार भी निकालते हैं कि "आजकल तो पापकर्म किये बिना कोई व्यक्ति सुख से जी ही नहीं सकता। 'करे पाप, खावे धाप ।' पाप किये बिना पैसा प्राप्त नहीं हो सकता । पाप से ही आदमी सुखी होता है।" ऐसे लोग अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी पापकर्म करने की ही शिक्षा और प्रेरणा देकर जाते हैं। वे संसार में पाप का हो वातावरण और माहौल पैदा करके जाते हैं। गर्भवास के दुःख कितने उत्कट, कितने प्रबल ? ऐसे लोग गर्भवास (पुनः पुन: जन्म-मरण) के दुःख को नजरअन्दाज कर देते हैं । हमारे महान् आचार्यों ने गर्भवास के दुःख को एक रूपक द्वारा समझाया है
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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